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Poetry

कविता ख़ुद मेरी कवि है 

रचती है मुझे

​बसकर मुझमें, बसाती है मुझे

अफ़सानों के गिरेबाँ में झाँकना 

तो हमें याद करना 

दीवानों के कारवाँ में झाँकना 

तो हमें याद करना। 

जब मिल ना पाए 

ग़म में कोई हँसने वाला 

जीने की तमन्ना में बसने वाला 

तो नज़र उठा के आसमाँ में झाँकना 

औ' याद करना। 

परदों से खिड़कियों को

जो न ढँक पाया 

आँखों से आँसुओं में 

ना बरस पाया 

हो सके तो उसके गुनाहों को 

कभी माफ़ करना।  

WhatsApp Image 2021-05-13 at 8.21.07 PM.

किसे ढूँढने आता है तू चाँद 
उन पंद्रह दिनों में चाँदनी की सर्च लाइट लेकर 
और कौन मिल जाता है तुझे 
जिसे छिपा ले जाता है तू पूरी अमावस्या की एक रात 
ये कैसी इन्सेक्योरिटि है 
ये कौन तेरा इतना छिपा हुआ सा करीबी है
कभी तो बताएगा हमें 
कभी तो हम जान ही लेंगे 
चाँदनी में तेरी तेरे साथ ढूँढ ही लेंगे 
​इससे पहले कि अमावस्या में छिपा ले जाए तू फिर से उसे   

तुमसे किसने कहा

कि आया न करो

बस आकर यूँ पास से जाया न करो


तुमसे किसने कहा

कि तुम्हारी ज़रूरत नहीं

बस अपनी आदत यूँ लगाया न करो


तुमसे किसने कहा

कि न मिलो अकेले में तुम

बस मुसाफ़िरों की तरह वक़्त बिताया न करो

तुम वो हो जो बारिश की बूंदों में हो 
बरसते ही रहोगे 
रिमझिम फुहारों में,
गरजन में, बरसन में 
झलकते ही रहोगे 
तुम हो आख़िर 
​मेरी आँखों में छ्लकते ही रहोगे 

आहिस्ता कदमों की आहटें हैं तुम्हारी 
दरवाजों तक मेरे 
तुम्हारी हल्की सी एक दस्तक से
खुल जाएँगे ये
जानते हो 
सो इसके उस पार तुम खड़े हो 
हाथों को अपने बांधे 
इस पार मैं हूँ बैठी
पैरों को जकड़े अपने 
दरवाजे की एक दस्तक है 
​हमारे दरम्यान 
 

We are like an unfinished poem
circling around in the chaos of the poet's mind,
resisting and surrendering
and again resisting
and surrendering again
to the allure of the mirror of perfection..

शरणार्थी

मैं जा रही थी 

रास्ते में मिली हवा 

उसने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"

मैंने कहा - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"

मैं चल पड़ी। 

रास्ते में मिले खेत 

सरसों ने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"

मैंने कहा - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"

​मैं चल पड़ी। 

रास्ते में मिली गौरैया 

उसने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"

मैंने कहा - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"

​मैं चल पड़ी। 

रास्ते में मिली नदी 

उसने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"

मैं चीखी - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"

और ​मैं दौड़ी। 

और फिर, कोई नहीं मिला। 

घर पहुँची। 

माँ थीं, 

उन्होंने दरवाज़ा खोला।

"माँ, क्या मैं शरणार्थी हूँ?" - मैंने पूछा। 

वे मुस्कुराईं, 

मेरा सर सहलाया और कहा - "हाँ" 

"यह तेरा घर नहीं, 

एक छोटा-सा शरण-स्थल है।"

मैंने फिर यही कहा - 

"हाँ, मैं शरणार्थी हूँ। 

सुना न तुमने ऐ हवा, सरसों के खेत, पंछी, नदिया!

​तुमने सुना ना!" 

शाम थी 
और थी तुम 
.......
क्या कहूँ 
कितनी अपनी हुई थी 
वो मटमैली धुंध 
सांवला वो आकाश 
गीली रिमझिम बारिश.. 
ज़बाँ की हमारी चुप्पी 
और मन की बतियाती आवाज़ 
............................
तुम और वो एक 
धुँधलाई सी शाम

इस खौलते पानी में हाथ डुबाए ​

हम लोग 

जाने कब तक बैठे रहेंगे 

एक-दूसरे को आँखें तरेरते 

जाने कब तक ऐंठे रहेंगे, 

कितनी बार 

बोलती आवाज़ों का गला दबाएँगे 

समुदायों को 

गिरोहों के किलों में सजाएँगे,

कब तक यूँ 

अपने ही बनाए धरातलों में 

​सिमटते जाएँगे?

Why don't you rain, you fragile little cloud?

You see your sky being still & silent
You feel the wind being partial to u, being resilient..
U look at the earth to realise there is no ground
And you know u r too high to touch your favourite butterfly sound..

Why don't u break that dark numb howl
Why don't u cry, why don't u shout
A lil more deafening, a lil more loud
O lovely weary shattered
O fragile little cloud?

Why don't u just rain, You weary weary cloud?

मन के भीतर कोलाहल में 

जब तेरा चेहरा आए 

मैं चुपके से दिल में सोचूँ 

तनहाई ना खिंच जाए। 

तेरी आँखें खुशकिस्मत सी 

जब चाहें तब घिर आएँ 

मेरा दिल आवारा पंछी 

छोड़ गया तो ना आए। 

एक बार जो उठा वहाँ से 

ना जाने अब कहाँ फिरे 

भूल गया दिल उधर के रस्ते

तू क्यों फिर इस तरफ मिले। 


मैं ना जानूँ उस मंज़िल को 

जिसको राहें भूल गईं 

फिर क्यों उठता है तू अक्सर 

ढूँढे उसको कहाँ गईं। 


वो न रहा ना होगा फिर अब 

जिसको माँगे इन हाथों में 

कह दे इन दोनों आँखों को 

पलकें वो अब नहीं रहीं। 


तेरे सहारे, सभी किनारे 

हाथ पसारे उसे पुकारे 

पर तू ना जाने पागल रे 

वो ना आए भूले-हारे। 


छूटे सब जो उसके अपने 

रूठे कब वो जाने सारे 

मैं भी ना खोजूँ अब उसको 

वो मुझको भी भूल चला रे। 


ना आएगा तेरा था जो 

ना आएगा इस रस्ते को 

भूल गया वो भूल जा तू भी 

इस जंगल को, उस क़स्बे को। 


तू भी जा अब, मुड़ जा वापस 

जा, तू भी ना आना वापस 

तू भी अब जा यहाँ, इधर से 

जैसे वो चल दिया इधर से। 


मन के भीतर कोलाहल में 

भीड़-भाड़ रहने दे थोड़ी 

अपने उसको पाने वापस 

मत आना इस, उस, जिस पल में।  


कभी सोचा है?

आपने कभी सोचा है 

कि 

सड़क दुर्घटना में ज़िंदगी और मौत से जूझते 

किसी व्यक्ति को देखकर 

हमारी आँखें क्यों नहीं भरतीं?

कि 

फुटपाथ पर बैठे किसी बच्चे को देखकर 

आपको उसपर प्यार क्यों नहीं आता? 

कभी गौर किया है 

कि 

जब जीती-जागती मुर्गियों को 

मुर्दा चिकन में तब्दील करने ले जाया जा रहा होता है 

तो उनके पंखों की फड़फड़ाहट में 

उनकी छटपटाहट हमें क्यों नहीं दिखती?

कि 

अपने गमलों में पानी देते वक़्त 

पड़ोसी के मुरझाए पौधों की ओर 

आपका ध्यान क्यों नहीं जाता?

कभी गौर किया है 

कि 

जब बिल्ली के कई बच्चे 

एक कोने में दुबके होते हैं 

तब नज़र पड़ने पर भी 

हम उन्हें क्यों नहीं पुचकारते?

कि 

भीषण गर्मी में जब कुछ लोग 

सड़क पार करने के लिए खड़े होते हैं 

तो 

अपनी गाड़ी की रफ़्तार कम कर 

उन्हें जाने देने का आपका मन क्यों नहीं करता? 

कभी गौर किया है 

कि 

सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते वक़्त 

अपने गिरेबाँ में झाँकने की हमारी हिम्मत क्यों नहीं होती?

कि 

हमें उस वक़्त कोई फ़र्क क्यों नहीं पड़ता 

जब हम अख़बार के पन्ने पलटते हैं?

कभी गौर किया है 

कि

सुबह-शाम मिलने पर भी 

हम सामने वाले पर विश्वास क्यों नहीं करते? 

कि 

बारिश में मन होते हुए भी 

क्यों हम जी भरकर गीले नहीं होते?

कि 

क्यों हम एक-दूसरे को 

बस तुलनात्मक दृष्टि से देखते हैं?

कभी गौर किया है 

कि 

क्यों हम ज़िंदगी को 

एक ढर्रे पर जीने के आदी हो गए हैं?

कि

क्यों नहीं हम अपनी खोल से निकलते हैं?

कि 

क्यों हम 'हम' न रहकर 'मैं' हो गए हैं?

​कभी सोचा है.....आपने? 

हाँ तुम बोलते नहीं 

ताकि वो सुन सके तुम्हें 

अपनी नीली आँखों में  बुन सके तुम्हें 

तुम कुछ नहीं कहते 

और वो जाने किस दुनिया की एक लड़की 

तुम्हें सुनती रहती है 

तुम्हारी अनकही में 

अनसुनी-सी 

ख़ुद को बुनती रहती है...

पारिजात और परियों की कहानी है ये 

पारिजात 

और 

परियों 

​की कहानी है ये.. 

Rusted we are and ruins we have,

for, rumours we live and raffish we smell

Amid this chaos, amid all this chaos

we crack a smile, a disrupted smile

to vanish in the spoiled cold thin air 

for how long, for how long? why must we care

An uncertainty arises like a beautiful mirage

but we heed and we hide, but we barely surpass

for, we are the daunted answers of the fickleness of disquiet questions 

we are the daunted answers of our own numb reflections 

डूब जाऊँ मैं तुझमें

ताकि पार पा जाऊँ तुझसे

जल जाऊँ तुझमें

ताकि जल उट्ठे नाम की तेरी बाती


ना नाम रहे, ना मैं रह जाऊँ

तू मुझमें, मैं तुझमें हो जाऊँ

ना डुबोए मझधार, ना बचाए माझी

ना अगन बचे, ना दीप बचे साझी

लौ रहे, लौ गीली रहे

लौ गीली रहे, डूबी हुई

जलती हुई, लौ गीली रहे

मिट्टी से लेपी गयी भित्तियों पर
कुछ निशान हैं हल्दी-लगे हाथों के
कुछ उड़े-उड़े, मिटे-मिटे से,
कुछ ही दिनों पहले के हैं
छोटे-छोटे
किसी बच्चे के।
बैंड-बाजों की आवाज़ में उलझी
आँखों के भावों से मिलती
ये हथेलियों की परछाइयाँ
लिपे-पुते आँगन पर छपीं
तेल-आटे से सनी हथेलियों की
सूनी परछाइयों से
काफ़ी मिलती-जुलती हैं।

चलते-चलते रुका दरख़्त बन गया है आदमी

हँसते-हँसते बड़ा कमबख्त बन गया है आदमी।


इसे मत रोको, मत टोको, मुसाफ़िर है

सूनी पगडंडियों पर चलता बड़ा सख़्त बन गया है आदमी।


कई ज़माने गुज़रे, कई अफ़साने गुज़रे, इसे कोई फ़िक्र नहीं

अपने आकारों में सिमटा कोई वक़्त बन गया है आदमी।

बहुत गिरा पानी,
बहुत गिरा
पर मिट्टी के भीतर न गया
कल-कल, छल-छल
बहता-मुड़ता
आगे निकलता गया,
ज़मीन पर गिरकर
बूंद से धारा में बदलकर उठता-गिरता
बहुत गिरा पानी, पर
मिट्टी की जड़ को न छू गया
मस्ती में बढ़ता रहा
मिट्टी से कहता रहा
सोखना मत मुझे
जाने देना
बहने देना
अपने लिए नहीं
मेरे लिए
मुझे रहने देना,
क्योंकि सुनो,
मैं आया नहीं यहाँ सिर्फ तुम्हारी प्यास बुझाने
गरमी को तुम्हारी दबाने
तुम्हें सुख पहुँचाने।
बुरा मत मानना
पर,
पत्तों पर गिरंकर
फूलों से टपककर
उछलकर-सम्हलकर
पग-पग डग भरकर मैं यहाँ दौड़ना चाहता हूँ
फिसलना चाहता हूँ 
बिछलना चाहता हूँ 
कूदना-फाँदना, मुड़ना चाहता हूँ। 
तेज़ी से - बहुत तेज़ी से - बहुत तेज़ी से 
काले बादलों की लंबी कैद से छूटकर 
हवाओं के थपेड़े खाकर 
मैं उतने दूर की खाली, सफेद दूरी मापता 
इस हरियाली, इस रंग-बिरंगेपन में अब फैलना चाहता हूँ 
बांधना मत मुझे 
मैं तुम्हीं पर उछलूँगा-कूदूँगा 
तुम्हीं पर बिखरूँगा 
पर सिमदूँगा नहीं 
तुम्हारे इस भूरे रंग के भीतर। 
मुझे मुक्त छोड़ देना इस धरती के ऊपर 
इस दुनिया के पास, 
मत करना धारण 
हमेशा-हमेशा के लिए 
अपने गर्भ में मुझे।

मेरी माटी जल जाए

और धुआँ ना उठे

मैं ख़ाक हो जाऊँ

और धुआँ ना उठे।


मेरा आसमाँ खिले

दो जहाँ से मिले

मेरी याद मिट जाए

और धुआँ ना उठे।


मेरा रास्ता चले

अपनी मंज़िल तले

ये कदम बहक जाएँ

और धुआँ ना उठे।


वहीं चाँद थम जाए

जहाँ सूरज ढले

रौशनी पिघल जाए

और धुआँ ना उठे।


ये हवा भी थम जाए

मौसम बदल जाए

मेरे पर सम्हल जाएँ

और धुआँ ना उठे।

बादलों की सफेदी पर अब काले रंग नहीं उभरते क्या?
दो छोटे-छोटे पंख लेकर पंछी भी अब उड़ान नहीं भरते क्या? 
लगता है बारिश ने हमेशा-हमेशा के लिए घूंघट ओढ़ लिया है 
हवाओं ने भी पीले-हरे पत्तों का दामन छोड़ दिया है।
आँखों से देखो तो आसमान नीला है 
और आँखें बंद करने पर कुछ दिखता ही नहीं 
कोरे-कोरे कागज़ सब कोरे ही उड़ जाते हैं
क्या उनपर अब कोई अपना हाल-पता लिखता नहीं? 
तितलियों और फूलों में भी बातचीत बंद है शायद 
उड़ते-खिलते दोनों एक-दूसरे को देखते तक नहीं, 
या वे भी इंसानों की फेहरिस्त में आ गए 
जो दोस्तों के दरवाज़े खटखटाना भूल गया, 
अंगुलियों में अंगूठियाँ तो काफी हैं 
पर उन अँगुलियों को कलम पकड़ाना भूल गया 
तालियों पर तालियाँ बजाता वह महफिल में
खुशी से पीठ थपथपाना भूल गया।


बादलों की सफेदी पर काले रंग नहीं आते अब 
वे सब हमारे नाखूनों में उतरने लगे हैं 
पेड़ तो बहुत हैं अपने हिस्से की छाया देते 
पर छुइमुई के पौधे सब ज़मीन के नीचे सोने लगे हैं। 
देखो न ईश्वर तुम भी ज़रा झाँककर 
हर कोई इतना अलग-अलग, चुप-चुप, रूठा रूठा सा क्यों है? 
आँखों के मिलने पर मुस्कुराती हैं आँखें, 
पर उन आँखों में कुछ झूठा-झूठा सा क्यों है? 
मिलते हैं कभी-कभार हाथों से हाथ भी 
पर उन हाथों में कुछ छूटा-छूटा सा क्यों है? 
सोचो ना तुम भी झाँको ना एक बार 
सबके लिए सबको मिलाओ ना एक बार
क्या हुआ जो एक-दूसरे से टकराएँगे सारे 
उस टकराहट में अपनापन मिलाओ ना एक बार 
सबको फिर से जिलाओ ना एक बार 
अँगुलियों को अँगुलियों से पिराओ ना एक बार 
धड़कनों को धड़कनों से मिलाओ ना एक बार 
बारिश के घूँघट को हटाओ ना एक बार 
आसमाँ पर काला रंग बिखराओ ना एक बार 
इस बारिश में तुम भी नहाओ ना एक बार।

वही दो-चार कमरे हैं

वही दो-चार गुलदस्ते

वही है धूल बिस्तर पे

कहीं महंगे कहीं सस्ते ।


अगर खोजूँ कहाँ खोजूँ

वो पल जो पड़ गए मध्यम

अगर माँगू कहाँ माँगू

वो सुर जो हो गए गुमसुम ।


उन सीढ़ी चढ़ते कदमों की

परछाइयाँ कहाँ पाऊँ

उन्हें खोने को, पाने को

अगर जाऊँ कहाँ जाऊँ।


कि बूंदें अब भी खिलती हैं

हवाओं के जगाने से

कि पलकें अब भी गिरती हैं

अंगुलियों के सिरहाने पे।

काश कि कुछ ऐसा हो पाता
कि जो सड़क पर है वह अपनी आवारागर्दी को जी पाता
इस ठंढे मौसम की खुशहाली, हरियाली को
किसी गर्म, रुईदार कम्बल में सी पाता
ठंढ को सिरहाने रख, जिंदगी के गर्म बिस्तर पर सोता वह
किसी तकिए की खुशबू को जीता, अलाव की गरमी को पी पाता
काश... कि कुछ ऐसा हो पाता।

नींद की खामोशी को आगोश में लिए रात

रात भर सोती है चुपचाप मेरे साथ।


एक रोज़ मैंने बोला न आओ इस तरह

आती हो तो न जाओ सुबह छुड़ा के हाथ।


शरमाई, थोड़ा ठिठकी फिर आई मेरे पास

हर रोज़ है मुझको जाना तब ही तो मैं हूँ रात।


तारों के कंबलों में, तो कभी आए खाली हाथ

पर आए जब भी, हँसकर आए वो काली रात।


कभी खिड़कियों से होकर कभी परदों से निकलकर

आए वो मेरे ऊपर और सोए सारी रात।

वक्त लगता है ज़ख़्म भरने में

छेड़ कर उनको यूँ हरा न करो

दर्द को रहने दो परदे में ज़रा

उन्हें आँखों की नेमतों से यूँ भरा न करो।


जब कोई अपना छोड़ दे तुम्हें कहना अपना

दिल को अपने न भिगाओ पराएपन में

उसके कुछ हिस्से जो बाँटे हैं खुद ज़िंदगी ने

मौत के साए में उसे यूँ अंधेरा न करो।


अंधी जलती है चिता किसी को आगोश में लिए

बहरा बहता है समुंदर का वो गहरा पानी

उम्र का हर कोई पहला या दूसरा किस्सा

चुप है बैठा उसे सरेआम यूँ खड़ा न करो।


यूँ तो कई बातें हैं जो मन को छुआ करती हैं

पर इन साँसों को उनसे ज़रा महरूम रखो

कुछ तो आदत भी बिगाड़ी है तुमने अपनी

दफ़्न करके तुम उनसे यूँ किनारा न करो।

Good Morning Sunshine!
कैसे हो?
आज बड़ी जल्दी आ गए
क्या बात है?
और बड़े खुश, चमकीले दिख रहे हो?
लगता है, कल पश्चिम में बहुत अच्छा दिन बीता है।
और बताओ क्या-क्या सोचा है तुमने आज के बारे में?
कहाँ-कहाँ जाना है?
किस-किसकी छत पर लेटना है?
किस-किसकी खिड़कियों में झाँकना है?
कौन-कौन सी सड़कों पर दौड़ना है?
किस-किसके चेहरे छूने हैं?
वैसे एक बात बोलूँ तुम्हें?
हो सके तो अपने इस चमकीलेपन,
अपनी इस खुशहाली का एक-एक जोड़ा
हर उस हाथ को पकड़ा देना
जिसके चेहरे तुम छुओगे।
जिससे कि, जब आज पूरा दिन यहाँ बिताकर
शाम को तुम पश्चिम में ढलो
तो वहाँ के लोग भी तुमसे यही सवाल करें
कि, क्या बात है दोस्त
कल पूरब में बहुत अच्छा दिन बीता है क्या
आज बड़े खुश दिख रहे हो?

पड़ोसी ने बजाई जब, हमारे दरवाज़े की घंटी 
दिल में खिले फूल, खुशबुदार औ' सतरंगी 
सोचा हमने, कोई हमारा कोरियर है आया 
गिफ्ट पैक में होगा क्या, ये सोच मन भरमाया 
दुबारा घंटी बजने पर हम दौड़े हुए यूँ आए 
गिरी किताब नीचे और कदम ये डगमगाए, 
लेकिन खैर, हमने खुद को सम्हाला 
चश्मा चढ़ाकर जल्दी, दरवाज़ा खोल डाला 
कहाँ है भाई कागज़, करना कहाँ है साइन 
पर ये क्या, उधर से आई आवाज़ डोंट माइंट, 
ना है यहाँ पे कागज़, ना साइन की कहानी 
मैं हूँ नया पड़ोसी, लेना है ठंडा पानी। 
पानी की क्या कहें हम, ये हाथ कसमसाए 
दिल में यूँ बाढ़ आई, हम खुद पे ही पछताए 
क्या थी हमें ज़रूरत खुश होके उछलने की 
बिन सोचे-समझे जाने दरवाज़ा खोलने की 
मन को मसोस कर किया उनसे नमस्ते हमने 
रोते हृदय से बातें हँसते हुए की हमने, 
फ्रिज है खराब अपना, नहीं कोई चीज़ इसमें 
नहीं है ठंढा पानी, कहा हमने खाकर कसमें 
इतना था सुनना कि बस पड़ोसी लकपकाए 
और हमें धकेलकर घर में घुस आए 
उनके ऐसे तेवर पर हम डरकर सकपकाए 
और वो फ्रिज़ खोल हमें देख मुस्कुराए, 
अरे सर, आप तो बड़े भुलक्कड़ नज़र आते हैं 
आखिर वक़्त पर पड़ोसी ही तो पड़ोसी के काम आते हैं 
ये रहा ठंढा पानी पीजिए और पिलाइए 
घर में हो अगर तो मिठाई भी खिलाइए। 
पानी के साथ कभी मीठा नहीं खाते 
कभी और, अब तो हम रहेंगे आते जाते
ऐसा कह उन्हें उनका दरवाज़ा दिखाया 
और खुद जल्दी से घर में घुस आया 
लेकिन एक सवाल पर दिमाग तड़फड़ाया 
अभी तो बच गई जान दरवाज़ा बंद करके 
लेकिन दिल-ए-नादान अब क्या होगा कल से।

दोमुँहे नागों के बीच बैठी हूँ मैं
इन्हीं में पली हूँ बढ़ी हूँ,
और आज अर्जुन की तरह खड़ी हूँ
बीच रणक्षेत्र में,
या तो अपने-आप को ख़त्म करो
या अपनों को।
और मेरा कोई कृष्ण भी नहीं है।

यार हवा
चुप रहो
मत बोलो इतने ज़ोर-ज़ोर से
ठंढ की भाषा।
चुप रहो उसी तरह
जिस तरह
ये ऊँचे-ऊँचे पेड़ चुप हैं
तुम्हारे ये थपेड़े खाकर भी,
मत बोलो उसी तरह
जिस तरह
ये हरा-भरा मैदान
कुछ नहीं कहता
अपनी घास को सफेद बर्फ़ में
बदलते देखकर भी,
चुप रहो
जिस तरह
खिड़की के कोने में बैठी
वह बिल्ली चुप है
अपने-आप को
परदे के पीछे छुपाकर,
जैसे
ये सड़क चुप है अपने ऊपर
बर्फ़ का बोझ सहते हुए भी,
उसी तरह
जिस तरह
बाबा के आगे जलते
अलाव की आग
कुछ नहीं कहती,
वैसे ही जैसे
भूरा ओवरकोट पहने
मेरी पड़ोसन चुप है,
चुप रहो; क्योंकि
तुम्हारी यह भाषा
बहुत ठंढी है
जो हमारे भीतर की गरमी
सोख लेती है,
मत बोलो; क्योंकि
तुम्हारी यह तेज़ आवाज़
हमारी कई आवाज़ों को लील जाती है
और इसीलिए
इन सभी की तरह तुम भी
कुछ मत बोलो
चुप रहो,
यार हवा।

एहसान फ़रामोशों की कोई कमी नहीं यहाँ यहाँ

जिसको बचाओ वही डंक मारता है

 फुफकारता है, दूध पिए साँप की तरह

दीवार का सहारा दिए बोगनविया की झाड़ी की तरह,

फिर भी ज़बान चुप है

भौहें तनने से इनकार करती हैं।

दिल को इस आतंक पर हावी होना अभी तक आया नहीं है।

कुछ जोड़ी कपड़े

(हर माँ के लिए, जिसके परिवार को NGO से कपड़े मिलते हैं)

 

बहुत खुश है बिटिया मेरी....

उसके नये कपड़े आये हैं आज...

लाल फ्रॉक के साथ लाल फीते में

बंधी चुटिया कितनी प्यारी लग रही है...

स्वेटर नहीं है...

पड़ोस की मुनिया को मिल गया...

उसे खाँसी है, ज़्यादा ज़रूरत है...

दो ही थे...

एक इसके बाबा को दे दिया....

मैं और चुटिया वाली मेरी बेटी उनके शॉल में लिपट लेंगे...

काली आज़ादी
 
एक अजीब तनहाई है,
चारों तरफ एक शोर से घिरी,
शोर
अविश्वास का, अनमनेपन का, गहरे विषाद का,
गुस्से का, अनास्था का, अनजानेपन का।
एक अजीब सन्नाटे को खुद से लपेटे
यह ज़िंदगी
जितनी गुज़रती है, उतनी ही खुदगर्ज़ होती जाती है
बेईमान होती जाती है, ख़तरनाक होती जाती है।
एक काली आज़ादी है जैसे
अंधकार की आज़ादी,
धोखेबाज़ी की आज़ादी,
दूर होते जाने की आज़ादी।
 
वह घास जो दूर से हरी दिखती है
उसके जितने पास जाओ, वह रेत की तरह पीली होती जाती है
उसे आज़ादी मिली है पीले होने की।
उस घास में दर्प है, अहंकार है
पीले होने का,
काली आज़ादी का;
जो उसे अंधेरी ही सही पर, आज़ादी तो देती है।

बम
 
सड़क पर पड़ी चीज़ कभी ना उठाइए
राह चलते उसे लाँघ जाइए
चाहे कितना भी बेशकीमती हो पर्स
न होने पाए उससे आपका स्पर्श
उसमें हो सकता जोरदार बम है
आपकी ज़िंदगी क्या पैसे से कम है?
पतले से चिप से भी धमाका हो जाना है
भाई आजकल हाईटेक ज़माना है
हाईटेक ज़माने को सर से लगाइए
सड़क की हर वस्तु से दूर हो जाइए।
चाहे निचला हिस्सा हो सीट का
या हो पार्क में बेंच बना कंक्रीट का
हर सीट पर चेक करके बैठिए
उसमें छिपा सकते हैं बम घुसपैठिए।
बमों की आजकल हर जगह जमात है
हमारी आपकी ज़िंदगी एक अदद बम के हाथ है
ज़रा धीमे से चेक कीजिए अपना हर पार्सल
कहीं हो न जाए जीवन से आपका कोर्ट मार्शल।
सरेआम बिकती है लोगों की लाइफ
चाहे हो हसबैंड चाहे हो वाइफ
लाइफ है प्रेशियस कहावत सरेआम है
सुन लीजिए आप भी, जान है तो जहान है।
लावारिस वस्तु दिखे तो दूर हो जाइए
ज़रूरी नहीं कि फोन कर पुलिस को बुलाइए
क्रिमिनल को पकड़वाके बन जाएँगे आप हीरो
पैसे भी मिलेंगे आपको पाँच के आगे पाँच ज़ीरो
पर जेल में जब क्रिमिनल की सज़ा होगी फुल
हो न जाए आपके जीवन की बत्ती गुल
तभी तो कहते हैं हम खुलकर आपसे
दिल को छोड़िए जनाब काम लीजिए दिमाग से।

बारिश

मैं देखती हूँ
आकाश में घने, काले बादल !
उमढ़ते-घुमड़ते हुए. 
आकाश ढँकते हुए। 
कुछ देर बाद ये बादल मूसलधार पानी बरसाएँगे। 
और वह पानी हमारे खपरैल छत के बीच-बीच से होकर 
हमारे घर में कई जगह टपकेगा। 
मिट्टी का धरातल भीगने से बचाने के लिए माँ 
यथासंभव हर टपकने वाली जगह पर कोई-न-कोई बरतन रख देगी।
फिर पानी के साथ-साथ तेज़, ठंडी हवा भी बहेगी 
और हम सभी भाई-बहन दादी के शरीर पर लिपटे शॉल में सिकुड़कर जा घुसेंगे। 
तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े अपनी-अपनी जगहों से निकलकर इधर-उधर घूमने लगेंगे, 
झींगुर बोलने लगेंगे हरे-हरे पेड़ धुलकर चमकने लगेंगे।
फिर कुछ घंटों बाद यह बरसात रुक जाएगी
और हर छोटे-बड़े गड्डों, नालियों, तालाबों में पानी भरकर 
हवा के साथ कहीं और भाग जाएगी,
हमारे लिए छोड़ जाएगी
भरपूर कीचड़ से भरे रास्ते 
जिसपर सम्हल-सम्हलकर चलते हुए बाबा खेत तक जाएँगे 
और उसमें रोपे गए धान के छोटे-छोटे पौधे देखकर मुस्कुराएँगे। 
अचानक मेरे ऊपर पानी की एक बूँद गिरती है 
और मैं अचकचाकर उधर देखती हूँ जिधर दूर से 
माँ हाथ के इशारों से मुझे बुला रही है और 
बाबा ऊपर आसमान की ओर देखकर कह रहे हैं
'बरसो - बरसो!' 
पानी बरसने लगता है और मैं भाग पड़ती हूँ घर की ओर, 
इससे पहले कि मुझे भीगती देख माँ वहाँ खड़ी-खड़ी नाराज़ हो जाए।

जली रोटी

कल रोटी बनाते समय
मेरा हाथ तवे से छू गया
जलन से मैं चिल्ला उठी
उस चीख में
अचानक एक और चीख मिल गयी,
पड़ोस की माथुर आंटी की
जब दो महीने पहले
उन्हें ज़िंदा जला दिया गया था,
उनकी शिफॉन की खूबसूरत गुलाबी साड़ी
भयंकर काले रंग के कूड़े के ढेर में तब्दील हो गई थी,
एक छोटी-सी मासूम लड़की की जब फूल चुनने जाने पर
गार्डन में मालिक के कुत्ते ने
उसे काट खाया था,
उस लड़के की
जब कुछ लोगों ने
उसकी पीठ में छुरा भोंक दिया था
उसकी पॉकेट से तीन हज़ार रुपये लेने के लिए,
उस लंगड़े भिखारी की
जिसकी नज़रें टिकी थीं
भीख में मिले दस रुपये पर
तब बत्ती हरी हो गयी थी
और उसके पीछे बस खड़ी थी,
दंगे में हथियार लिए
गुस्से से पागल भीड़ से भागती,
अपने बच्चे को गोद में चिपटाए एक माँ की 
जिसके बेतहाशा दौड़ते पैर 
कभी साड़ी में तो कभी बुरके के घेरे में फँस जाते हैं, 
और भी कई चीखें थीं जो आपस में इतनी बुरी तरह गुँर्थी थीं 
कि उन्हें पहचानना मुश्किल था। 
मैंने घबराकर अपने कान बंद कर लिए, 
आवाजें अभी भी आ रही थीं। 

धीरे-धीरे करके जब वे ख़त्म हुईं 
तो उस चीख के ख़त्म होने पर एक अजीब मरघट-सी चुप्पी थी 
उस चुप्पी में कई ख़ामोशियाँ थीं जो
कभी गुजरात में बैठे एक बूढ़े की आँखों में पथराती हैं, 
तो कभी काश्मीर से भागे एक पंडित की जुबाँ से चिपक जाती हैं, कभी सड़क पर पड़े एक लड़के की लाश से होकर गुज़र जाती हैं 
जो अभी से कुछ देर पहले थरथराई थी, 
कभी चौराहे पर सोए एक आधे-अधूरे कंकाल पर फैलती हैं 
जो कभी शायद ज़िंदा था, 
कभी एक दुल्हन को छू जाती हैं जिसकी जली हथेलियों में
कभी मेहंदी भी लगी थी।
एक ऐसी खामोशी 
जो सबसे होकर गुज़र जाती है 
और सभी चुपचाप, बस चुपचाप खड़े रह जाते हैं। 

मेरा ध्यान तवे पर गया 
तवे पर रखी रोटी बुरी तरह से जल चुकी थी।

अक्सर
(भाई के लिए, जब उसे स्कूल की गली छोड़े एक साल हो गए थे)

कदमों की चापों को सुनने पर 
मुझे अक्सर याद आते हैं 
वे मस्तमौला कदम 
जो लड़खड़ाते, 
अल्हड़ से दीवाने की तरह मुस्कुराते
यहीं कहीं खोया करते थे, 
कभी किसी चिप्स के स्वाद में 
कभी किसी फल की खुशबू में 
कभी किसी गाने की धुन में 
कभी किसी झुनझुने की झुनझुन में,
मोज़ाइक के बने फर्श पर दौड़ते खुले शू-लेस लिए 
झूलते-झालते कॉलर, खुली टाई 
और ढीले-ढाले बैग लिए 
वही मौसम मिलता है हर बार 
उस फर्श पर खड़े होने पर 
उधर से आने या उधर से गुज़रने पर। वही टाई अभी भी याद आती है 
वही बेफ़िक्री मन को घेर जाती है 
मन होता है 
झाँककर वीडियो गेम वाली उस दुकान को देखूँ 
जिसके उस लाल-पीले रिमोट ने जाने कितनी बार 
हममें आपस में रेस करवाया था
एक-दूसरे को धक्का दिलवाया था और जाकर खोलूँ ज़रा 
उसी चिप्स के पैक को 
जिसकी स्वादिष्ट खुशबू हमें 
आपस में झगड़ने को उकसा जाया करती थी।
मोज़ाइक के उस फर्श पर चहलकदमी करने पर
मुझे बीते समय के कदमों की दौड़ती-उछलती आहटें 
अक्सर सुनाई पड़ जाया करती हैं।

न जाने इस आईने का चेहरा हमसे मिलता क्यों है
हर बार मिलकर हमें अपना-सा वो लगता क्यों है।

हर रात जब चाँद निकलता है छत पे
हमें देखकर हर बार वो हँसता क्यों है।

हर राह एक राह से मिलती है जहाँ
उस राह पे चलता एक रस्ता क्यों है।

रौशन हुई एक ज़िंदगी जहाँ पर अपनी
उस गैर का हर कदम वहाँ फिसलता क्यों है।

किस राह पे चले और पहुँचे कहाँ हम
यह सोचकर हर बार दिल दुखता क्यों है।

जिस रूह से मिल चुके हम कई दफ़ा
इस बार वो अजनबी-सा लगता क्यों है।

वो जो आईना है अपने से चेहरे वाला
हर बार वो मिलकर कुछ टूटता क्यों है।

एक सड़क गुज़रती है कजरारी-सी दोपहर पर
धूप-सी पसरकर आती-जाती है वक़्त बेवक़्त ।

कोई खंडहर तोड़ता है खुद को बेदर्द होकर
पत्थरों की परतें नोचता है वक़्त बेवक़्त ।

एक कब्र खुलती है, दफ़्न होती है खुद में
तनहाइयों को बटोरते हुए हाँफ़ती है वक़्त बेवक़्त ।

कोई ख़याल उड़ता है जागी हुई हवा में
परत-दर-परत पिघलता है वक़्त बेवक़्त ।

एक आज़ाद जंगल जलता है धीरे से
जाता है यहाँ से होकर आवारा वक़्त बेवक़्त ।

तुम्हारी आँखें अब बोलती नहीं 
ऐसा लगता है
जैसे
तुम कुछ सोचते रहते हो हमेशा 
जैसे
एक साजिश चल रही हो दिमाग में ऐसा लगता है 
क्योंकि
अब तुम चुप रहते हो 
तुमने बोलना छोड़ दिया है 
और साजिश रचने वाले
प्रायः
बोला नहीं करते।

काहे गये तुम छोड़ के हमें 
ऐसी बारिश में साँवरे.... 
न आए निंदिया न आए चैना 
जिया डूबे जैसे मझधार में

न ये दिन ही ढले 
न रात कटे 
दुपहर भी हुई बेजार रे....

होठों से हसूँ पर मन में कहूँ 
तुम गए जो तो सब बैरी भये 
तू आ, आ अब 
और रोक ज़रा इनकी मेरी तकरार रे...

तुम हो ना..?

पेड़ों की इन टहनियों ने पूछा मुझसे, यूँ झुककर 
मेरे साथ-साथ फिरती सी तुम हो क्या? 
हाँ, हूँ ना !

आसमाँ पे इन बदलियों ने पूछा मुझसे, यूँ रूककर 
मेरे साथ-साथ उड़ती सी तुम हो क्या? 
हाँ, हूँ ना!

जब भी चली हवा
मौसम बदला 
पत्ते हिले कहीं
सबने ही 
चलते हुए मुझे 
रोक कर कहा 
ऐ राही सुनो ज़रा 
अकेले चले कहाँ 
हाथों में हाथ नहीं, 
कोई तेरे साथ नहीं 
मैंने तब दिल में कहा, 
हाँ मेरे साथ नहीं 
पर दिल के किसी कोने में तुम हो ना? 
हाँ, हूँ ना!

अपनी दुनिया की राहों में 
मनचली हवा की बाँहों में 
जब भी मैं खुद को पाता हूँ 
तेरी यादों में खो जाता हूँ। 
आँखों की इस भाषा में 
होठों की इस बोली में 
तेरी ही बातें पाता हूँ 
तेरे ही किस्से कहता हूँ 
तुम बोलो, इस दिल में बैठी, 
चुप-चुप सी ये, तुम हो क्या? 
हाँ, हूँ ना !

हरी-भरी सी वो आँखें 
खुली-खुली सी वो पलकें 
मैं क्या करूँ उनका, के अब 
वो मेरी आँखों से झलकें 
ये तारों की झिलमिल रातें 
ये बारिश की रिमझिम बातें 
मेरे पास-पास जब आती हैं 
हौले से छूकर मुझको 
तेरी याद दिला सी जाती हैं 
तब धड़कन कहती है मेरी 
इनकी हर एक शरारत में तुम हो ना? 
हाँ, हूँ ना !

कैसे चलें हम

साँवला रास्ता गोरे कदम 
यार तुम्हीं बताओ कैसे चलें हम...

ज़रा जूही बिछा दो जहाँ कदम पड़ेंगे 
ज़रा धूप हटवा दो वरना हम ना चलेंगे, 
फिर चाहे जाना हो तुमको अकेले, तो जाओ 
कैसे चलें हम, तुम्हीं बताओ.....

ये आवारा समाँ अभी धूप अभी घटा 
मनचले मौसम का बेईमान कारवाँ 
अच्छी नहीं है नीयत इनकी, हम बता दें 
आखों में शरारत है इन्हें कहो पलकें मूंदें 
वरना हम ना चलेंगे 
फिर चाहे जाना हो तुमको अकेले, तो जाओ 
कैसे चलें हम, तुम्हीं बताओ

ये बादलों का राजा, रानी को लेके आए 
सोलह सिंगार करके बारिश अगर भिगाए 
मेहंदी के रंग सारे जो धुल गए हमारे 
तो हम क्या करेंगे 
ना ना ना हम ना चलेंगे 
फिर जाना हो तुमको अकेले, तो जाओ 
कैसे चलें हम हमदम तुम्हीं बताओ
कैसे चलें हम....

मरते आदमी की कविता

 

मैं शब्दों के मोहजाल नहीं बिछा सकता,

क्योंकि मैं कवि नहीं हूँ

मैं एक आम आदमी हूँ।

पंक्तियों पे पंक्तियाँ नहीं बिठा सकता

क्योंकि मैं इन्हें बनाना नहीं चाहता

बस ये बनती चली जाती हैं।

इनके बनने में मेरा सिर्फ़ एक योगदान है

कि मुझे हिंदी लिखनी आती है।

आम आदमी होने का अनुभव स्वयं में एक कविता है।

लेकिन कविता खूबसूरती की नहीं, बदसूरती की भी नहीं

वह कविता सिर्फ़ रेंग सकने की आपाधापी है

वह कविता ज़िंदगी से जूझती नहीं बल्कि ज़िंदा रहने की कशमकश है।

यह वह कविता है जो ज़िंदा तो है पर कब मर जाए कोई ठिकाना नहीं।

और मरने वाला चाहे और कुछ भी हो पर खूबसूरत नहीं होता।

और इसीलिए

मैं अपनी कविता में शब्दों के मोहजाल नहीं बिछा पाता,

पंक्तियों पे पंक्तियाँ नहीं बिठा पाता।

दो पिल्ले

मैं बैठी थी यहाँ 'एम.एच.' के बैंक गेट के पास 
बैठी-बैठी कुछ-कुछ लिख रही थी 
कुछ खा भी रही थी। 
तभी कुत्ते के दो पिल्ले मेरे पास भी और दूर भी 
आकर घूमने-फिरने लगे। 
उनमें से एक था सफेद और भूरा 
अपने मम्मी और पापा दोनों का रंग लिए 
और दूसरा था भूरा, 
सिर्फ भूरा अपने जन्मदाताओं में से किसी भी एक की तरह। 
मैंने उन्हें बुलाया, 
भूरा और सफेद दोनों रंगों वाला कुछ करीब आया, 
मैंने उसे खाने को 'कुछ' दिया दूर ही से 
उसने टेस्ट किया, शायद टेस्टी लगा इसलिए 
दुबारा देने पर फिर मुँह लगाया, 
धीरे-धीरे मैंने खाने की उस चीज़ को अपने पास सरकाया 
पिल्ला भी थोड़ा और थोड़ा और करके आगे खिसक आया। 
बाएँ हाथ से खुद को और दाएँ से मैंने उसे भोजन खिसकाया, 
उसे लगातार खाते देख पूरे भूरे का भी जी ललचाया, 
उसने भी अपने-आप को मेरी ओर खिसकाया 
अपनी पूँछ हिलाकर मेरा ध्यान अपनी ओर बँटाया 
मैंने देखा, तो पिल्ला शायद मुस्काया (ऐसा मुझे लगा) 
मैंने उसकी ओर भी अपना दिल लगाया 
फिर जाने क्या हुआ कि भूरा मेरे दाएँ 
और सफेद-भूरा मेरे बाईं ओर लग आया। 
अब दाएँ हाथ से उसे और बाएँ से इसे, 
मेरे खुद के खाने का ख़याल स्वयं में भरमाया 
खैर, दोनों को 'खुद' मानकर मैंने 
उनपर सारा भोजन लुटाया। 
अब?
अब मैंने पानी की बॉटल की ओर हाथ बढ़ाया 
पानी थोड़ा सा गिराया, 
सफेद-भूरे ने धीरे से जीभ सटाया 
लेकिन पानी उसके मन को न भाया 
उसने अपनी भोली आँखों को मेरी आँखों से मिलाया 
और फिर भूरे को कुछ समझाया, शायद 
(ऐसा मुझे उन दोनों के 'एक्सप्रेशन' को देखकर लगा) 
और भूरे ने अपना कदम धीरे से कहीं और के लिए बढ़ाया। 
अभी मैं वहीं बैठी हूँ (आपको पता होगा क्या कर रही हूँ) 
भूरा मेरे पीछे कहीं कूड़े में 'कुछ' ढूँढ रहा है 
और सफेद-भूरा मेरे सामने बैठा 
आँखें मूँद कुछ सोच रहा है (ऐसा मुझे लग रहा है)।

तुम डरती हो
देर तक मेरे दूर कहीं बाहर रहने से।
डरती हो
मेरे धूप में निकलने से,
मेरे अधिक पढ़ने से,
मेरे कमज़ोर पड़ने से,
बीमार पड़ने से,
मगर
मुझे जन्म देने वाली
मेरी माँ
तुम्हें बता दूँ
कि ज़िंदा कोई नहीं रहता यहाँ
देर तक, दूर तक।
सभी मरते हैं
एक दिन
मैं भी मरूँगी
तुम्हारे इस डर से बहुत आगे
मैं
धूल बनकर
इसी धूप में कहीं पड़ी रहूँगी।
आज जो
तुम्हारे डरने का कारण
तुम्हारी चिंता का हिस्सा हूँ
परेशान होने की आदत हूँ
कल,
बस एक अतीत, एक किस्सा बनकर रह जाऊँगी,
लाख पकड़ने पर भी
तुम्हारे हाथ नहीं आऊँगी तुम्हारे पास नहीं आऊँगी। 
और उस दिन
तुम बेहद ज़िद्दी, बेवकूफ, मतलबी, 
अपने मामले में हद दर्जे तक स्वार्थी अपनी इस बेटी 
और अपने जीवन के इस एक पागल-से हिस्से के लिए 
परेशान मत होना, 
रोना मत, 
इसके लिए डरना मत।

ये भटकाव

ये भटकाव चंद कदमों का
चंद रस्तों का
चंद लम्हों का, 
लेकर जाएगा कहाँ 
नहीं जानता ये दिल। 
ये घनी, भरी-भरी धूप 
मीलों सी लगती है छाँव 
जानकर भी अनजान है दिल कौन-सी गली मेरा गाँव। 
झाड़ियाँ, ये कच्ची-सी धूल 
जाने क्यों जाती नहीं भूल 
परछाई पलटकर माँगे है जवाब 
कहाँ हैं मेरे वे अपने से ख़्वाब 
घोड़ों की टापों से रौंदा ये मन भटकता है लिए बिखरते कदम। 
ये बिखराव चंद किस्सों का 
चंद यादों का, 
चंद हिस्सों का 
लेकर जाएगा कहाँ मुझे 
नहीं जानता 
ये दिल।

ख़याल

ज़िंदगी एक शाम होती 
तो 
एक पुल पर बैठे-बैठे उसे बिता देना
कितना आसान होता।
ज़िंदगी एक कागज़ होती
बिना कुछ लिखे
उसे
कोरा ही उड़ा देना
कितना आसान होता।
कितना आसान होता 
खाली नाव पर चुपचाप बैठे 
नदी की ओर ताकते, 
सूखी ज़मीन पर रेखाएँ खींचते 
फ़ालतू में कोई पहर बिता देना,
न कोई आना
न कोई जाना 
न कुछ कहना 
न कुछ सुनना,
बस कुछ साँसों के साथ 
शाम की धूल में धुएँ को तोलना, 
एक सीधी चलती पगडंडी पर 
सीधा-सीधा चलना, 
कितना आसान होता 
कुएँ की मुंडेर पर बैठे पैर हिलाते 
आराम से
दिन का गुज़रना।
ज़िंदगी एक ख़याल होती 
तो आसमाँ के नीचे 
छत पर लेटे 
तारों को गिनते 
उस ख़याल का आना 
कितना आसान होता।

फुटपाथ

जब कभी फुटपाथ रोता है, 
मुझे दो आँखें याद आती हैं, 
दो पाँव याद आते हैं, 
पसीने से तर-ब-तर, 
एक देह याद आती है, 
बचपने को भूल चुकी
एक हँसी याद आती है। 
याद आते हैं कुछ शब्द, कुछ आहटें

जो फुटपाथ के साथ चलती थीं,

छोटी-छोटी पलकें 
जो फुटपाथ के साथ उठती-बैठती थीं। 
काले-भूरे बाल 
जो हवाओं के चलने पर भी 
उड़ा नहीं करते थे, 
बचपने को खो चुका 
एक बचपन याद आता है 
जब कभी फुटपाथ बूढ़ा होता है 
और धीरे-धीरे रोता है।

मिरांडा का बैकगेट

कितना उबाऊ है
मिरांडा हाउस के बैंक गेट पर बैठना 
लोगों को आते-जाते देखना 
कभी अकेले तो कभी ग्रुप में, 
कितना उबाऊ है। 
गाड़ियाँ, रिक्शे चलते हुए 
पुलिस की जीप को गश्त लगाते हुए 
स्टूडेंट्स को गेट से बाहर निकलते 
अंदर जाते हुए देखना 
कितना उबाऊ है। 
और लोग भी हैं इंतज़ार करते हुए 
खड़े-खड़े, बैठे या टहलते हुए, 
कुछ दूरी पर आइसक्रीम वाला खड़ा है अपनी वैन के साथ 
भेलपूरी वाला भी है आ पहुँचा उसी के पास 
लोग खरीद रहे हैं, खा रहे हैं, खिला रहे हैं 
कुछ देख भी रहे हैं 
और पता नहीं क्या सोच रहे हैं। 
कुछ दोस्त 'हिंदू' के भी गुज़र रहे हैं 
यहाँ देखकर 'हाय' और 'बाय' एकसाथ कर रहे हैं 
कितना उबाऊ है 'हाय' के साथ ही 'बाय' कह देना 
हैंडशेक करना और बैठने के लिए भी न कहना 
दोस्तों का मिलना और मिलते ही बिछुड़ना
कितना उबाऊ है। 
'पी.जी. वीमेंस' में फोटोकॉपी कराना 
फिर बैठकर पॉकेटमनी का सारा हिसाब लगाना 
कोसना कैंटीन को और उससे आने वाली खुशबू को 
फिर बैठकर चुपचाप लंचबॉक्स निकालना 
कितना उबाऊ है कैफ़े की कॉफ़ी छोड़ 
वही पुरानी अपनी बिसलेरी उठाना
कितना उबाऊ है।
ढाई बजे तक (बैक गेट पर बैठने की) यह ऊब देती है साथ 
और फिर उसके बाद 
पैदल चलते हुए इक्ज़ाम के लिए टेंशन लाने की बात 
लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी कुछ 'फील' न होना 
कितना उबाऊ है।
'हिंदू' जाकर घड़ी निकालना 
उलटना-पलटना, फिर वापस रखना 
सामने खड़ी 'स्कॉरपियो' पर लिखे को पढ़ना, 
"यू आर बिहाइंड द कार ऑफ़ द ईयर, बिहाइंड!" 
और उसमें बैठी टीचर को देखकर हो जाना ब्लाइंड 
कितना उबाऊ है। 
तीन बज गए हैं 
कुछ हॉस्टल जा रहे हैं, कुछ कॉलेज से निकल रहे हैं 
स्टॉप पर 'हिंदू' और 'स्टीफंस' के बच्चे खड़े हैं 
उनके साथ 'यू-स्पेशल' की राह देखना 
कितना उबाऊ है।
वहीं पर खड़ी अपनी मैम से ग्रीट करना 
और उनके लायक बातें बड़ी ही मुश्किल से ढूँढना 
तभी बस का आना, मैम से पीछा छुड़ाकर मुस्काना 
लेकिन 'मेहरौली' से पहले 'पूर्वांचल' का आ जाना 
कितना उबाऊ है, ना!

बहुत दिनों तक ज़मीं को देखा मैंने 
अब मुझे आसमाँ चाहिए 
इस जहाँ से बहुत किया हासिल मैंने 
अब मुझे वो जहाँ चाहिए।

मोहब्बत मिली कई दिलों से, अब 
ऐ खुदा शोहरत का पैमाना दे मुझे 
दोस्तों ने साथ दिया बहुत मेरा 
अब मुझे दुश्मनों का साया चाहिए।

दूसरों की खुशियों की सोहबत मिली, ज़रा 
मेरे दिल की मेरी ख़ुसूसियत दे मुझे 
खिड़कियों से पूछा किए उनकी ख़ैरियत 
अब खोलने को एक दरवाज़ा चाहिए।

मर्यादा

मैं लक्ष्मी हूँ 
उछलते-कूदते लड़कों से बहुत पीछे 
पगडंडी पर चलते हुए 
धीरे-धीरे 
कहीं फिसल न जाऊँ 
और घड़े का पानी छलक न जाए।

मैं सीमा हूँ 
ठुड्डी तक घूँघट निकाले 
साड़ी से अपने पाँव के अंगूठे को छिपाते हुए 
कहीं एड़ी न दिख जाए।

मैं ममता हूँ 
घर की खिड़कियों की लोहे की सींकचों के भीतर 
बाहर किसी की बारात जा रही है 
ढोल-नगाड़ों, बाजों-गाजों के साथ 
मैं देखना चाहती हूँ 
बाहर सभी देख रहे हैं 
लेकिन... मैं नहीं जाऊँगी।

मैं गुड़िया हूँ 
दहलीज़ पर बैठी 
अपनी उम्र के लड़कों को बाहर खेलते हुए देखती 
मैं भी खेलना, दौड़ना-धूपना चाहती हूँ 
लेकिन उनके पास मैं नहीं जाऊँगी।

मैं बेबी हूँ 
बाहर छोटे बच्चों को 
दूसरों को गिराकर हँसते-खिलखिलाते हुए देखती
मुझे भी हँसी आती है 
पर मैं उसे रोक लेती हूँ 
मैं भी हँसना चाहती हूँ 
पर मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी।

मैं राधा हूँ 
जाड़े में एक ठंडे कमरे में सिहरती हुई 
बाहर दरवाज़े पर खूब धूप है 
अंदर आँगन में भी 
पर मैं वहाँ नहीं जाऊँगी 
क्योंकि 
दरवाजे पर बड़े-बुजुर्ग बैठे हैं 
और आँगन में मेरी जिठानी अपने बड़े बेटे के साथ।

मैं मल्ली हूँ 
गीले बालों की चोटी बाँधती हुई 
मेरा मन करता है बाल खुले छोड़ देने का 
बालों में हवा की सरसराहट महसूस करने का 
लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगी।

मैं कम्मो हूँ 
बहुत कुछ करना चाहती हूँ 
पर बैठी हूँ दहलीज़ के अंदर 
सर से पाँव तक खुद को ढके हुए 
चुपचाप क्योंकि; 
मेरी..एक..मर्यादा..है...

तुममें मैं हूँ

आकाश की छत पर खड़े होकर 
ईश्वर ने पूछा- किसने कहा
कि तुम मुस्लिम हो
और मंदिर में नहीं जा सकते,
किसने कहा
कि तुम शूद्र हो
और मुझे छू नहीं सकते,
किसने कहा तुमसे
कि हर उस व्यक्ति को मार डालो
जो मूर्ति पूजा करता है,
किसने कहा कि
झुको उसके सामने
जो मेरी माला जपता है,
किसने कहा कि
मेरे सामने घी के दिये जलाओ
और मेरी प्रार्थना में तुम खुद को नीच पाओ,
किसने कहा कि
संसार माया है
कि इसमें दुःख ही दुःख है, कि
मेरी बनाई इस भरी-पूरी दुनिया को छोड़ 
वीरान जंगल में चले जाओ
और वहाँ मुझमें लीन होने की कोशिश करो।
मैंने तो नहीं? 
मैं तो ये कहता हूँ 
कि प्रकृति को पूजो 
कि उसमें मैं हूँ, 
हर इंसान को प्यार करो
कि उसमें मैं हूँ, 
उस द्वारा किए गए 
हर सफल-असफल कार्य को सराहो 
कि उसमें मैं हूँ, 
ख़ुद में आस्था रखो 
कि तुममें मैं हूँ, 
तुम्हारी ख़ुदी में मैं हूँ, 
कि जीवन से भागो मत जीवन जीओ, 
कि तुम्हारे जीवन में मैं हूँ।

वह ढूँढता प्यार

 

अफरा-तफरी 
विषाद, निराशा, 
कोलाहल, 
भीड़, हताशा, 
अन्यमनस्कता, 
अजनबीपन, 
दुःखी, चिंतित, परेशान, 
अपने-आप में उलझे 
नरमुण्डों के जंगल में, 
वह ढूँढता प्यार 
अफ़सोस ! 
उसे जल्द ही 
थक जाना पड़ेगा।

खूबसूरत
(अर्चना, तुम्हारे मन के लिए)

उसकी आवाज़ कोयल की कूक इतनी मीठी नहीं 
उसकी हँसी कलियों जितनी प्यारी नहीं 
उसकी आँखें झील इतनी गहरी नहीं 
उसकी चंचलता बसंती हवा जैसी चंचल नहीं 
उसकी अंगुलियाँ चित्रकार जैसी कलात्मक नहीं।

वो नदियों जैसी उनमुक्त नहीं 
वो आसमाँ जैसी गंभीर नहीं 
उसमें जाड़े की धूप-सी ताज़गी नहीं 
उसमें नींद जैसी मदहोशी नहीं।

लेकिन फिर भी वो ख़ूबसूरत है,
खूबसूरती से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत।

पानी
(बाढ़ में तबाह हुए उस एक गाँव के लिए)

बारिश की बूँदें जब धरती से टकराती हैं 
तो कितनी सारी खूबसूरत आवाजें आती हैं, 
जब मोटी-मोटी धारा किसी एक तरफ को बहती है 
तो एक साथ होकर
वो कितनी आकर्षक लगती है, आपने कभी देखा है? 
अगर नहीं 
तो देखिएगा कभी ग़ौर से, बिल्कुल पास से। 
वैसे तो ये दृश्य काफ़ी मधुर लगते हैं
पर कभी-कभी 
इनसे कुछ अलग तरह की आवाजें भी आती हैं 
बिल्कुल ऐसा लगता है 
जैसे उन बूँदों के टकराने के साथ ही 
किसी का हाथ भी उसके सिर से जा टकराया हो, 
बूँदों की रिमझिम आवाज़ में 
किसी का चिंतित स्वर भी मिला होता है कभी-कभी, 
पानी की मोटी धार में पानी के साथ-साथ 
कुछ जीवित, कुछ मृत आकृतियाँ 
कभी किसी आदमी की शक्ल लेते हुए 
तो कभी किसी मवेशी की शक्ल में
बहुत तेज़ी से बहती हैं कभी-कभी। यह पानी जब एक साथ गिरता है, टकराता है, बहता है 
तो इसके साथ-साथ 
बहुत-से घर एक साथ हो जाते हैं 
उनकी खिड़कियाँ, दरवाज़े, दीवारें, 
सभी कुछ आपस में मिल जाते हैं 
और पानी तेज़ी से बहता रहता है।

सुहानी-सी खुशियाँ

बारिश में भीगे 
हल्के-हल्के हिलते पत्तों-सी, 
हवा में खुद को सुखाती 
भूरी गौरैया के पंखों-सी, 
बड़ी-बड़ी खिड़कियों के 
लंबे-लंबे परदों-सी,
दादी की खुली सफेद, 
रेशमी ज़ुल्फ़ों-सी, 
बूढ़े-से काका की 
खिलखिलाती, पोपली हँसी-सी, 
दाँतों के बग़ैर 
होठों में कहीं फँसी-सी, 
चश्मा हटाती माई के हाथों-सी, 
पतली सी अँगुलियों और 
झुर्रीदार आँखों-सी, 
नानी के बनाए 
गरम-नरम स्वेटर-सी, 
कमरे में लोगों से 
घिरे हुए हीटर-सी, 
आटा-मिल के 
नौ बजे के सायरन-सी, 
सरदी की हवा से 
शॉल के अंदर सिहरन-सी, 
राख के भीतर 
चूल्हे में जलते अंगारों-सी, 
मेले में सजे हुए 
हलचल बाज़ारों-सी, 
गरमी की छुट्टियों में 
बंद पड़े स्कूलों-सी,
आधे खिले, आधे बंद 
पप्पी के फूलों सी, 
ये दिल की दुनिया 
होठों के सरगम, 
जीवन के नदी-ताल 
सपनों की धड़कन, 
कित-कित के खेल-सी 
सुहानी सी खुशियाँ, 
ईश्वर की इनायत या 
कोई अपनी ही दुआ।

तानाशाह वक़्त

वक़्त कई बार आपको वक़्त नहीं देता 
अपने सपनों को ज़िंदगी में ढालने का, 
सुना है मैंने 
कहते हैं अगर चाह हो तो राहें अक्सर बनती हैं 
लेकिन ये भी है सच 
कि अक्सर वक़्त के आगे किसी की नहीं चलती है 
वक़्त वो तानाशाह है जो कभी मरता नहीं, 
डरता नहीं, हारता नहीं, 
न पिघलता है, न पिघलने देता है।
हमें अपने जीवन के सिर्फ़ इक्के-दुक्के रस्ते देता है चुनने को। 
हम अक्सर दो तरह से जीते हैं, 
मुट्ठी में अपनी ज़िंदगी लिए 
या ख़ुद को ज़िंदगी की मुट्ठी में किए, 
इन दोनों में वक़्त की इजाज़त बहुत मायने रखती है। 
अगर उसकी मर्जी हो 
तो आपसे पूछे बग़ैर 
वह आपको मौकों की खिड़कियों से भरे कमरे में ला खड़ा करेगा। और अगर वो नहीं चाहता 
तो खाली होकर भी आप खाली नहीं रह पाते 
और अपने सपनों को पूरा करने का जोख़िम नहीं उठा पाते 
ज़ख़्म लिए ज़िंदगी के बस इसे खोते रह जाते हैं
सालों साल, महीने-दर-महीने, ख़याल-दर-ख़याल । 
और वक़्त की तानाशाही बदस्तूर जारी रहती है।

मैं परेशान-सा हूँ
(पैरालिटिक अटैक के बाद)

मैं कुछ परेशान-सा हूँ 
दरवाज़े खोलकर बैठा हूँ 
खिड़कियों से देखता हूँ, 
सामने रास्ते से होकर 
कई लोग हैं जो गुज़रते जा रहे हैं, 
आ रहे हैं, चल रहे हैं, चलते चले जा रहे हैं। 
कोई न दाएँ देखता है न बाएँ 
सिर्फ़ ख़्वाहिशों के टूटे-फूटे खपरैल छप्पर लिए 
हाथों में सम्हालते, हाथों से गिराते 
रास्ते पर कदम-दर-कदम आगे बढ़ते जा रहे हैं। 
रास्ते के उस पार कोई घर नहीं है, 
कोई दरवाज़ा नहीं है, कोई खिड़की नहीं है 
न ही रास्ते के इस तरफ कोई घर है। 
सिर्फ़ मैं हूँ, अपना दरवाज़ा खोले, 
खिड़कियों से झाँकता, देखता हुआ, 
लोगों को सम्हल-सम्हलकर तेज़ी से चलते हुए देखता। 
मेरे अड़ोस-पड़ोस में सन्नाटा है
कुत्ते भी नहीं भौंकते
सिर्फ़ हवाएँ चला करती हैं
कुछ भूरे, सूखे पत्तों को गोद में खिलातीं। 
मैं देखता रहता हूँ,
चुपचाप, 
क्योंकि मेरे साथ कोई और नहीं देखता।
अब तो ऐसा लगता है
जैसे ये दरवाज़े-खिड़कियाँ भी
रास्ता देखने से जी चुराने लगे हैं 
क्योंकि उनके पल्ले अब दीवार से नहीं 
आपस में टकराने लगे हैं। 
हो सकता है, ये दरवाज़े, ये खिड़कियाँ 
जो पूरी तरह खुले रहते हैं 
और जिनको लेकर मुझे ऐसा लगता रहा है कि 
वे मेरे साथ रास्ते को एकटक देखा करते हैं 
वे मेरी ही ओर घूमकर खड़े रहते हों 
और मुझे झूठमूठ लगता रहा हो कि 
वे मेरी ओर पीठ किए 
मेरे साथ रास्ता निहार रहे हैं, 
हो सकता है। 
मैं आजकल ज़रा परेशान-सा हूँ 
क्योंकि सूने पड़ोस में लिपटा ये घर 
दरवाज़े और खिड़कियों का बोझ नहीं सह रहा 
और रोज़ रास्ते की ओर अपनी एक-एक ईंट गिरा रहा है 
और लोग हैं कि बस चलते चले जा रहे हैं, 
चलते चले जा रहे हैं।

भरी दुपहरी मई की

भरी दुपहरी मई की 
वह कुएँ से पानी भरता है। 
पानी से मंदिर धुलेगा 
मंदिर भगवान शिव का 
किसी की मानता पूरी हो गई है 
इसीलिए आज यहाँ पूजा है। 
धुल-धुलकर और साफ होकर 
मंदिर बिल्कुल चमक उठेगा 
ऐसा कि उस पर आँखें ही न टिक सकें। 
पानी भरते-भरते उसे प्यास लग रही है, 
तेज़, गरमी की प्यास 
पर वह, चुपचाप लगातार कुएँ से पानी भरता है 
क्योंकि पानी पीने के लिए 
उसे तालाब पर जाना पड़ेगा 
और इस तरह मंदिर का काम रुक जाएगा 
जिसके लिए उसे पाप लगेगा 
भयानक, भयंकर पाप 
और प्रायश्चित के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं 
इसलिए सूखे गले, कड़ी धूप में 
वह कुएँ से पानी भरता है। 
वैसे तो इस कुएँ का पानी भी बहुत ठंढा है 
ऐसा कि छूने पर लगे मानो गंगा जी नहा लिये 
और साफ ऐसा कि पूरी देह आराम से दिख जाए 
पुजारी जी कहते हैं, 
गुड़ से भी मीठा स्वाद है इसका 
उस पर से बिल्कुल मुलायम 
एकदम केले के नए पत्ते जैसा। 
लेकिन छू वह भले ही ले इस पानी को 
आँखें भर-भरकर जब तक चाहे देख भी ले 
पी नहीं सकता 
क्योंकि वह एक तुच्छ आदमी है 
और कुआँ भगवान का है। 
मंदिर धुल रहा है 
फूल, अगरबत्ती की खुशबू आने लगी है 
धुलकर और साफ होकर मंदिर चमकने लगा है 
सुंदर, सफेद, झकाझक मोती जैसा। 
पसीने से भीगी अपनी देह 
और पानी की प्यास लिए 
वह कुएँ से लगातार पानी भरता है 
भरी दुपहरी मई की।

चाह एक हँसी की

सागर की लहरें तब बहुत शान्त थीं,
तितलियों ने उड़ना नहीं चाहा था, 
न ही कलियों ने खिलना शुरु किया था, 
तब वही दिन था जब मैंने हँसना चाहा था। 
और जब मैं मुस्कुराई; 
तो कलियों ने झुककर, हौले से,
कनखियों से मुझे देखा, 
तितलियों ने पंख फैलाए 
और लहरों ने मेरे दिल का स्पर्श किया। 
जब मैं हँसी 
मेरे साथ कुएँ का पानी हँसा 
पिंजरे का पंछी हँसा 
पीली-पीली पत्तियाँ हँसी 
सूख चुका वो पुराना पेड़ हँसा 
पूरी दुनिया हँसी 
ये ज़माना हँसा। 
देख क्या रहे हो ओ बड़े आसमाँ
आओ मेरे साथ हाथ मिला लो 
फिर हमारी इस प्यारी Planet Earth पर 
कोई दुखी नहीं रहेगा। है न!

सूरज को दिल में उगाते हैं
(ओलम्पिक विनर्स के लिए)

यहाँ सूरज दिल में उगता है 
और चांद आँखों में सोता है 
यहाँ पलकें जो सपना देखें 
हर सपना पूरा होता है। 
तारों को मुट्ठी में लेकर 
हम हाथ से हाथ मिलाते हैं 
मंज़िल सोना बन जाती है 
जब कदम से कदम बढ़ाते हैं।

इन होठों पर मुस्काँ खेले 
और कदमों में है जीत खिले 
हर साँसों में जज़्बा पाले 
हर पलकों में विश्वास मिले 
धरती छोड़ें तो आसमान 
की शान में पाँव बढ़ाते हैं 
मन्ज़िल सोना बन जाती है 
जब हाथ से हाथ मिलाते हैं।

बस जज़्बातों की नदी नहीं 
हिम्मत की ज्वाला रखते हैं 
अर्जुन के तीर चलाते हैं 
और एक निशाना रखते हैं 
चाँदी, काँसा, सोना लेकर 
बाँहों में उसे झुलाते हैं 
तारों को मुट्ठी में लेकर 
हम कदम से कदम बढ़ाते हैं।

तक़दीर लिखी हमने अपनी 
ख़ुद ही लिख डाले अफ़साने
जो रोक सके हमको अब तक 
हैं बने नहीं वे पैमाने 
पीछे रहना सीखा ही नहीं 
बस जीत की राह बनाते हैं 
हम जो भी सपना देखें वह 
बस पूरा करते जाते हैं।

हौसला है ताकत मत पूछो 
कि मन में क्या-क्या अरमाँ है 
सीढ़ी-दर-सीढ़ी हमको बस 
उस पार वहाँ तक चढ़ना है 
आगे ना हमसे कोई जहाँ 
हम दूर वहाँ तक जाते हैं 
आँखों में सोया चाँद है और 
सूरज को दिल में उगाते हैं।

याद आते हो

सागर किनारे की लहरें जब छूती हैं मुझे, 
तुम याद आते हो 
डूबते सूरज के पीछे से झाँकते हो धीरे से मुस्कुराते हो, 
तुम याद आते हो।

अमलतास के पीले फूल पूछते हैं मुझसे 
पूरब की खिड़की मेरी बंद है कब से 
पीपल के सूखे, झड़े हुए पत्ते 
उड़ते-उखड़ते तुम्हें चाहते हों जैसे 
पीलेपन में इनके जब तुम छा जाते हो 
धीरे से आकर इन्हें थपथपाते हो,
तब याद आते हो।

परछाइयों तक पसरकर शाम की मरियल धूप 
माँगती है मुझसे अपना सुनहरा रंग-रूप 
शिकवा करती है तुम्हारी यह पागल हवा 
पूछती है कहाँ गई वह सोंधी सबा 
अनजान बनकर दामन जब छोड़ जाते हो 
हसरतों को इनकी जब आज़माते हो 
तुम याद आते हो।

अँगुलियाँ

ख्वाहिशों के मंज़र को पकड़ती ये अँगुलियाँ 
आसमानी बंजर पर बिखरती ये अँगुलियाँ

आँखों के इशारों को समझती ये अँगुलियाँ 
ख़्वाबों की मज़ारों पर सिहरती ये अँगुलियाँ

ईंटों की भट्ठियों में चलती ये अँगुलियाँ 
कागज़ में, कलम पर मचलती ये अँगुलियाँ

खेतों में हँसुलियों पर सम्हलती ये अँगुलियाँ 
सड़कों पर पत्थरों को मसलती ये अँगुलियाँ

डालियों पर पेड़ों के उछलती ये अँगुलियाँ 
चादरों पर बिस्तरों के पसरती ये अँगुलियाँ

अपनों की चिताओं पर पिघलती ये अँगुलियाँ 
हाथों की बोलियों पर फिसलती ये अँगुलियाँ

अँगुलियों की सिलवटों को पढ़ती ये अँगुलियाँ 
अँगुलियों से अँगुलियों को बदलती ये अँगुलियाँ।

ये मैं हूँ

ब्रह्म क्या है, मैं हूँ
संसार क्या है, मैं हूँ
आकाश क्या है, मैं हूँ
जल क्या है, मैं हूँ
अग्नि क्या है, मैं हूँ

मेरी गहराई से ही जलधि की गहराई है 
मेरी तरुणाई से ही सुरों की तरुणाई है 

मेरी तेजस्विता अग्नि को प्रज्ज्वलित करती है 
मेरी अडिगता ही पर्वत को स्थिर रखती है।

मेरी ही शक्ति से चट्टानों की कठोरता है 
मेरी ही भक्ति से वाणी की निर्मलता है 
मेरी असीमता से अंबर की विशालता है 
मेरी निस्सारता से मरुस्थल की अनंतता है।

मेरी हँसी में सारा जग हँसता है 
मेरे खिलने में हरेक पुष्प खिलता है 
मेरी चंचलता ही लहरों की चंचलता है 
मेरी ख़ामोशी ही समय की निःस्तब्धता है।

मैं एक इशारा कर दूँ दुनिया इधर-उधर हो जाए 
मैं एक इशारा ना दूँ दुनिया उधर इधर हो जाए।

मैं धर्म हूँ, मैं कर्म हूँ मैं समर हूँ, मैं अमर हूँ 
मैं दृश्य हूँ, अदृश्य भी शोभित हूँ मैं, स्पृश्य भी।

शिव की तीसरी आँख हूँ मैं, कृष्ण के मोर की पाँख हूँ मैं 
मैं ही कान्हा की वंशी हूँ, और परशुराम का शाप हूँ मैं।

मेरी गरमी से सूरज का यह ताप प्रखर है 
मेरी नरमी से निर्मल बहता यह निर्झर है 
मेरे हृदय की विशालता है बसी गगन में 
मेरे ही मन की गतिशीलता रची पवन में।

मैं हर प्राणी का नेत्र हूँ, मैं धरती का हर क्षेत्र हूँ 
मैं मर्यादा हूँ राम की, मैं प्रतीक हूँ हर नाम की।

मैं कृष्ण का सुदर्शन हूँ, कंस का मान-मर्दन हूँ 
मैं दीये का प्रकाश हूँ, मैं दृढ़-निश्चय, विश्वास हूँ।

मेरे उठने से दिन है, मेरे सोने से रात 
मेरी एक-एक चाल में है दुश्मन की हर मात।

मेरी ही सुंदरता से सुंदर हैं सर्वेश, 
मेरी ही साँसों से बसता है यह परिवेश 
मेरी कुरूपता से पोषित होता ये पंक है 
मेरी ही कृपा दृष्टि से ये राजा वो रंक है।

मैं नूपुरों की झंकार हूँ, मैं हृदय की करुण पुकार हूँ 
मैं योद्धा की ललकार हूँ, वीरता की जय-जयकार हूँ।

पवन जिसे उड़ा नहीं सकता, सागर जिसे बहा नहीं सकता, 
अग्नि जिसे जला नहीं सकती, वो मैं हूँ; 
मैं सबमें हूँ, सब हैं मुझमें, ये मैं हूँ।

इससे पहले

वो कदम ही क्या जो रुक गए चलने से पहले, 
हम ही क्या जो झुक गए सम्हलने से पहले। 

आदत नहीं किसी से हार जाने की 
आदत नहीं कहीं न आने-जाने की 
कोई साथ हो, हो ज़रूर पर 
कोई हो न हो हमें ग़म नहीं 
किसी राह पर किसी के लिए 
जो ठहर गए वो हम नहीं। 


मुड़ते कभी वापस नहीं 
ये अपनी फ़ितरत ही नहीं 
जो ठहर सके किसी मोड़ पर 
है अपनी किस्मत ही नहीं, 
कोई पास हो, न हो पास गर 
हमें चाह कारवाँ की नहीं 
मंज़िल-तले जो छाँह हो 
वो छाँह दीवानों की नहीं। 

मिले धूप वो जो जुनून हो 
जिसकी हवा में सुकून हो 
जिसकी ज़मीं में खून हो। 

हों रास्ते, हों मंज़िलें 
हों शिकवे कुछ, हों कुछ गिले 
खोए-से कुछ हों सिलसिले
जब जहाँ पर हम हों मिले। 

इससे पहले मौत आए 
हम ज़मीं पर मुस्कुराएँ 
खोलकर चारों दिशाएँ 
बाँहों में झूमें घटाएँ 
आसमाँ भी सर झुकाए 
मुस्कुराकर।
इससे पहले मौत आए 
हम ख़ुदी को आज़माएँ 
रोएँ हँसकर ये दिशाएँ 
आँसुओं में खिलखिलाएँ 
झूमकर बरसें घटाएँ 
खोल दें आँचल फ़िज़ाएँ 
दे सदाएँ वे वफ़ाएँ, खो गए जिनमें कभी हम 
ना किया फिर भी कभी ग़म 
कर सलाम ऐ यार उसको 
जिसने किस्सों पर हमारे 
आँखें अपनी कीं कभी नम
इससे पहले..

पीछे पड़ा पुराना, होता है पुराना ही

ज़िंदगी की पुरानी सड़क पर 
पीछे लौटकर कभी-कभी 
यादों के पड़े पत्ते उठाकर 
देखने को जी चाहता है, 
उन सूखे नारंगी रंग के फूलों में बसे
खुशनुमा लम्हों के साथ चहकने को
कभी-कभी जी चाहता है,
आँखों की पलकों पर बैठी 
छोटे-छोटे कदमों वाली 
अल्हड़ नदी सी उम्र को 
फिर से जीने को जी चाहता है, 
पर जानता है दिल मेरा 
कि पीछे पड़ा पुराना 
पुराना ही होता है, 
सामने उगते रास्तों के पीछे 
पुराना ही होता है जो खोया होता है। 
कि ख़त्म हो चुका वक़्त 
ख़त्म होता है शुरु होने को 
एक नई करवट, एक नया पन्ना 
नई यादें सँजोने को। 
कि ज़िंदगी की पुरानी सड़क पर पड़े 
सब पत्ते पीले ही होते है 
पुरानी धूप में सूखे 
पुरानी ही ओस में गीले होते हैं।
कितनी ही प्यारी हो चाँदनी 
सुबह की रोशनी में सिमटती वह
पुरानी ही होती है 
और कितना ही प्यारा हो चाँद पर
सुगबुगाते नए सूरज के पीछे सोया
वह पुराना ही होता है।

सुन हवा

ऐ हवा ज़रा साँस दे मुझे 
खोल दे ख़ुद को मेरे आसपास 
नीली-नीली परियों का सपना दे मुझे 
तारों भरे आसमान-सा अपना दे मुझे। 
टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों और लंबी-पतली सीढ़ियों पर 
खुले पैरों दौड़ना है 
गुच्छी-गुच्छी डालियों और गुच्छा-गुच्छा कौड़ियों को 
एक पर एक रख जोड़ना है, 
जाने दे मुझे ज़रा एक सपना पिरोने दे 
घुंघरु की एक आहट से थोड़ा सा जहाँ गुँजाने दे। 
पँख लगा उड़ती हैं मेरी सारी ख़्वाहिशें 
देखूँ तो मैं भी उचककर कहाँ तक पहुँची हूँ मैं 
चाँद तक पहुँचूँ तो अच्छा
ना सूरज मिले कहीं 
खिलखिलाती, मुस्कुराती 
राहें मेरी सिरफिरीं 
उड़ती-फिरती पत्तियों-सी गिरती-धुलती बहकने दे
लूट लेने दे मुझे इन तितलियों की चिट्ठियाँ 
पढ़ न पाया जहाँ इसको पढ़ न पाया मन कोई 
खोल लेने दे लपककर उड़ते मन की गिट्ठियाँ,
और सुन तू भी ज़रा अब दौड़ गीली घास पर 
और अपने नर्म तलवों में गुदगुदी-सी लगने दे ।

खुले हाथों

खुले हाथों रेत पकड़ना 
सूखे पैर रेत पर चलना 
बहुत सुकून देता है दिल को, 
अच्छा लगता है जब हाथ की रेखाएँ
पनियाले सागर में जाकर मिल जाती हैं 
पाँवों के निशान आकाश के छोरों से घुल जाते हैं 
आधा डूबा सूरज आँखों के कोरों से सिल जाता है। 
ऐसा अक्सर नहीं होता कि 
दिल की गहराई आँखों की पगडंडियों से होकर बाहर आए 
और होठों के दर्द को छूने से पहले ही सूख जाए। 
पर जब होता है तो ज़िंदा होते एक-एक रेशे का वजूद मिटा जाता है 
तलवे चुपचाप बैठ जाते हैं और 
नसों में बहता लहू अचानक बूँदों में बदल जाता है। 
हालाँकि ऐसा अक्सर होता नहीं है पर जब होता है 
तो हथेलियों में कई कोने बना जाता है
जिससे होकर सारी रेखाएँ नीचे गिरती चली जाती हैं
बिल्कुल आँखों से गिरते सपनों की तरह।

मुफ़्त की ये ज़िंदगी

धूप की परछाई में 
सुनहरी आँखें लिए 
मन की छोटी अंगुली थामे 
धूल के धुएँ में घिरी 
मिचमिचाती साँसें लिए 
कभी सोचती हूँ 
मुफ़्त की ये ज़िंदगी 
कितनी महंगी पड़ती है हमें कभी-कभी। 
गुलाबी पंखों से उड़ती 
नीली-हरी रोशनी में 
काले-गहरे अक्षरों की किताब पढ़ती
कभी-कभी कितना अंधा कर देती है हमें 
कि आसपास का अंधेरा हमें दिखता भी नहीं, 
सफेद मिट्टी के नारंगी रंग में भीगे हम 
पहचान ही नहीं पाते कि सूखी हवा की सुगंध में 
हम धीरे-धीरे सूखते जा रहे हैं
कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी देती है हमें
गीली बाल्टी से टप-टप टपकती ये ज़िंदगी 
कि नारंगी रंग की ये खुशबू 
हमेशा फैलती रहेगी 
मटमैले रंग का ये जीवन 
हमेशा खुशनुमा रहेगा।

ये दुआ है मेरी

जब दुख के भार से मन बेतरह थकने लगे 
पलकें किसी अनजाने बोझ से उठ ही न पाएँ 
पाँव किसी भी तरह चलने की शक्ति न जुटा पाएँ 
तब तुम मुझे चलने के लिए पुकारना, 
वो आवाज़ देना 
जिसे सुनकर पाँव काँपते हुए भी चलने को चाहें 
पलकें उठने को तत्पर हो उठें 
और मन इन सभी दुखों से थककर भी 
मुस्कुराने की कोशिश करे। 
हे ईश्वर, ये दुआ है मेरी 
कि कभी थककर सोऊँ न, 
कभी थककर बैठूँ न, 
कभी थककर रोऊँ न। 
अकेले ही चलूँ हमेशा 
किसी का साथ न चाहूँ 
चलूँ और आगे बढूँ 
कभी रुककर किसी की राह न देखूँ,

ये दुआ है मेरी तुझसे 
हे ईश्वर।

आँखों पर मौसम ये भारी पड़ता है

पलकों पर धुआँ-धुआँ सा कुछ ठहरता है 
आसमाँ का बादल ये दिल में उतरता है 
भारी-सा होकर फिर आँखों से फिसलता है।

हमारा हिंदोस्तान

ये विश्व की पहचान है, सारे जहाँ की शान है 
कुर्बान हैं इस देश पर, जो हम सबों की जान है।

पूजे जिसे आकाश भी, ये उस वतन की ज़मीन है 
है वसंत जिसका आईना, ये वो फ़िज़ाँ रंगीन है। 
ये चमन है, ये बहार है, ये प्यार का सिंगार है 
जहाँ कृष्ण की मुरली सजे, ये वो सुरीली तान है।

मेरा हर जनम ये नसीब हो, मेरी जान इसके करीब हो 
मैं जियूँ तो इसके वासते, मेरी साँसें इसके नाम पे 
मैं मरूँ तो मेरे दोस्तों, वो मौत इसकी अजीज़ हो 
मेरी चाह, मेरी जुस्तजू, ये मेरा जहाँ ये जहान है।

देखो हमें यूँ तोड़ कर, रंजिश दिलों में जोड़कर 
लड़वा न दे हमको कोई, बहका न दे हमको कोई 
हम लड़ जो बैठेंगे अभी, तो उठ न पाएँगे कभी 
मंदिर-सी धरती है यहाँ, न लड़ो ख़ुदा के वासते 
है जुदा धरम तो क्या हुआ, दिल से तो सब हैं एक से 
हम एक थे, हम एक हैं इसका हमें अभिमान है।

आज़ाद, गांधी, भगत के बलिदान का जो गवाह है 
जो सभ्यता का अग्रणी, गँगा का वो ही प्रवाह है 
जो रहीम है, जो राम है, जिसको सदा ही प्रणाम है 
जिस प्यार को, विश्वास को, हर रहगुज़र का सलाम है 
वो अपना हिंदोस्तान है, हमारा हिंदोस्तान है।

एक बार एक आवाज़ आती है और यूँ हीं चली जाती है

अल्लाह के दरवाज़े तक एक फ़रियाद चली जाती है।

बंदों के हाथों में जाने कौन-सी रेखा दी तूने

जो उनके हाथों को उनसे ही दूर लिए जाती है।

जाने क्या कुछ दे दिया मिलाकर लहू के रंग में

जो उस रंग में ही उन्हें मिलावट नज़र आती है।

ये कैसी दुनिया है तेरी ये कैसी फ़ितरत दी इनको

कि तेरे-मेरे सज़दों पर एक ख़ौफ़ सिए जाती है।

अधखुली हथेली में

घुप्प अँधेरा,

डर है

कहीं धीरे-धीरे कर

बाहर न आ जाए

व्यक्ति के अंदर फैलते-फैलते

उसके

बाहर भी न समा जाए।

जिसने हज़ारों तूफ़ानों को

अपने में समेटा हो, समाया हो

उसे तुम आँधियों का डर दिखाते हो?

जिसने खोला हो बंधनों और जकड़नों को खेल-खेल में

उसे तुम रस्सियों से डराते हो?

कहाँ है वह मन?

कहाँ है चाणक्य पंडित

हाँ गया चंद्रगुप्त वीर

कहाँ हैं वे लक्ष्मण और

कहाँ गए वे राम धीर?

कहाँ गई वह गदा भीम की

जिसने मारा जरासंध को

कहाँ गया वह चक्र सुदर्शन

जिसने मारा कभी कंस को ?

अर्जुन का गांडीव कहाँ है

कहाँ गया वह धनुष-तीर

अरे पुकारते हो तुम किसको

यहाँ सभी बस क्लीव-क्लीव !

बादल की हुंकार सुन उन्हें

कालिदास याद हैं आते

अंधियारी रातें हँसती हैं

सुन-सुन उनकी प्रेमिल बातें।

जी जाए मरते-मरते भी

जीते-जीते मर जाए

बाहुबली वह, महावीर वह

विद्रोही जो कहलाए।

कहाँ जल रही है आग वह

कहाँ है वह अगम चरम

हम जिसे हैं ढूँढते

कहाँ है वह मन?

मेरे भीतर का लाल रंग

मेरे भीतर लाल रंग का कुछ है

जो लगातार टूटता है,

बिखरता है, जुड़ता है,

भागता है।

यक़ीनन ये खून नहीं है

पर कभी-कभी मुझे खून जैसा लगता है,

ऊपर से नीचे

नीचे से ऊपर

हमेशा दौड़ता रहता है,

हर बार कहीं चोट लगने पर

अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है।

मैं पूरे तौर पर यह नहीं जानती कि ये क्या है

या शायद इसे जानना नहीं चाहती

पर कभी-कभी खून सा ये लगता है मुझे,

अपनी रफ़्तार में गुज़रता

ये जब हथेलियों तक आता है

तो बार-बार न चाहने के बावजूद

बाहर की दुनिया देख जाता है

हर बार दुनिया की साँसें गिन लेता है

लेकिन इससे इसकी रफ़्तार कम नहीं होती

वही तेज़ की तेज़, ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर।

हालाँकि इसका रंग थोड़ा फ़ीका पड़ जाता है,

धुँधला पड़ जाता है।

वैसे तो मैं ये जानती हूँ कि ये खून नहीं

लेकिन फिर भी जैसा कि मुझे कभी-कभी लगता है,

अगर ये खून है

तो इसका गाढ़ापन थोड़ा पिघलता तो होगा

या इसका लाल रंग कभी बदलता तो होगा।

कैंसर / HIV से पीड़ित बच्चों के लिए

कोई पूछता है किसी से हम क्यों हैं और क्या हैं

कोई बताए उन्हें कि वे अपनी-अपनी दासताँ हैं।

वे जानते नहीं कि मौत के करीब हैं

और पूछते हैं कि ज़िदंगी के मक्सद क्या हैं।

उन्हें ना खबर और तुम बेखबर

कि जाता कहाँ उनका ये कारवाँ है।

क्या सपने इसी तरह टूट जाया करते हैं

क्या अपने इसी तरह छूट जाया करते हैं।

क्या हम जीकर भी जिया नहीं करते

अपने-से ख़्वाबों को सिया नहीं करते।

क्या लोगों की फितरत में यही होता है

दोनों हाथों की किस्मत में यही होता है।

न खुदा मिलता है न दुनिया होती है अपनी

क्या कुदरत के करिश्मे में यही होता है।

लौट जाना होगा

ऐ पवन के झोंके,

मुझसे क्या चाहते हो तुम,

कहाँ ले जाना चाहते हो मुझे,

रहकर इस दुनिया से गुमसुम।

मैं रोज देखती हूँ तुम्हें

कभी ज़मीन पर घिसटते हुए

तो कभी आसमाँ पर फिसलते हुए

हर पल मेरे नज़दीक आने की कोशिश में।

क्या याद दिलाना चाहते हो वो समय,

जब हम और तुम साथ-साथ

खेत की मिट्टी उड़ाया करते थे,

जब तुम्हारे साथ मैं देर तक दौड़ा करती थी

और तुम्हें पकड़ना चाहती थी,

पर तुम हमेशा मुझसे दूर ही भागते रहे,

और आज जब तुम चाहते हो,

कि मैं तुम्हारा स्पर्श करूँ

मैं तुम्हें छू नहीं सकती।

क्या याद दिलाना चाहते हो मुझे वो समय,

जब एक-दूसरे का हाथ पकड़कर

हम दूर तक दौड़ा करते थे

और अठखेलियाँ करती पत्तियों को

एक-दूसरे से छीना करते थे,

तुम नदियों की लहरों को मेरे पास भेजते थे

और मैं उनसे डरकर दूर भागती थी।

कभी तुम मेरे छोटे-छोटे बालों में उलझकर खीझ उठते थे,

और कभी मेरी निर्दोष अंगुलियों को पकड़ने की कोशिश करते थे।
मुझे याद हैं वे पल,

जब नींद का कोमल घेरा मेरे चारों ओर होता

तो तुम उस खूबसूरत मौसम के साथ मिलकर मुझे चिढ़ाया करते थे।

मुझे याद हैं वे वादियाँ

जिनकी गोद में बैठकर हम खूब हँसते थे

वो फ़िजाँ जो हमेशा ही बन-ठनकर रहना पसंद करती थी

और अपनी हरी-हरी आँखों से मुस्कुराया करती थी।

पता नहीं क्यों छोड़ आयी मैं उन सबको

वो हँसना, डरना, वो खीझना, चिढ़ाना

वो दौड़ना, पकड़ना

सब वहीं रह गए,

मैं चली आई वादियों की उन गहराइयों को छोड़

इस संवेदनाशून्य संसार में।

मैं जानती हूँ

उस नदिया, उस मौसम, उन वादियों, उन पत्तियों ने ही

तुम्हें मेरे पास भेजा है।

पर, ऐ पवन

मैं अब वहाँ कभी नहीं जा सकती

उन सबके पास तुम्हें लौट जाना होगा

वापस ।

लोग कहते हैं

एक शाम होती है आँखों में भी, लोग कहते हैं

मौत सरेआम होती है साँसों में भी, लोग कहते हैं।

ज़िंदगी की किसे ज़रूरत नहीं पड़ती

वह बदनाम होती है साँचों में भी, लोग कहते हैं।

मझधार में खोकर ही दूरी नहीं डूबती

वह दरमयान होती है हाथों में भी, लोग कहते हैं।

घर से बाहर ही हमेशा धूप नहीं मिलती

वह मेहरबान होती है दीवारी सायों में भी, लोग कहते हैं।

मन

आवारा माँझी-सा मन

डोले लहर से लहर

दौड़े यहाँ से वहाँ

तैरे इधर से उधर।

साहिल पे फिसला करे

चलता रहे हर डगर

माँगे हवा की छुअन

करे आँखों पे असर।

लहराए सागर पे ये

देखा करे हर सहर

महसूस करके इसे

झपकाए अपनी नज़र।

पागल दीवाना है ये

पहचाने सबको मगर

झाँका करे सब जगह

जाने वो हर एक पहर।

साहित्य

पूछा मैंने एक से- साहित्य है क्या?

वो बोला- कुछ अक्षर हैं

जो एक-दूसरे में कुछ घाले-माले हैं,

और तो कुछ पता नहीं पर लगता है बस काले हैं।

पूछा मैंने दूसरे से- साहित्य है क्या?

वो बोला- शब्द हैं

जो आपस में कुछ सीधे हैं

कुछ उजले भी, कुछ टेढ़े हैं,

कुछ मिले-जुले, कुछ बिछड़े हैं

और कुछ यूँ ही बस बिखरे हैं।

पूछा मैंने तीसरे से- साहित्य है क्या?

वो बोला- पंक्तियाँ हैं

कुछ लंबी और कुछ छोटी-सी

कुछ खरी-खरी, कुछ खोटी-सी

कुछ तुकांत हैं, कुछ अतुकांत

यूँ ही ऐसे ही मोटी-सी।
मैंने पूछा फिर चौथे से- साहित्य है क्या?

वो बोला- अर्थ है

हमारे होने का न होने का

पाने का कुछ खोने का

जगने का फिर सोने का

हँसने का फिर रोने का

कटती फसलों को बोने का

अनचाहे बोझ को ढोने का

धुले हुओं को धोने का

सभी में सब को पिरोने का।

मैंने पूछा फिर पाँचवे से- साहित्य है क्या?

वो बोला- हरियाली है

मन की, दिल की खुशहाली है

जो जागी है पर सोयी-सी

अपने अंदर ही खोयी-सी

भूली-भटकी, कुम्हलायी-सी

नव यौवन की तरुणाई-सी

हम सब की इक परछाई-सी

पर्वत, भूमि और खाई-सी।

मैंने पूछा अब छठे से- साहित्य है क्या?

उसने पूछा- अजी, कौन हो तुम?

जो पूछते हो साहित्य है क्या,

ये प्रश्न तो बड़ा पुराना है,

ये पूछो... वो जीवित है क्या..?

वैसे विचार

जो शब्द नहीं बन पाते

वे सिर्फ आपस में गुँथे

कुछ अक्षर रह जाते हैं

जैसे किसी हाथ की अंगुलियों को

अगर एक-दूसरे या

तीसरे-चौथे के स्थान पर रख दिया जाए

तो वह हाथ

हाथ नहीं रह जाता बल्कि

हथेली में उलझी कुछ अंगुलियाँ भर रह जाती हैं।

छोड़ो यार

छोड़ो यार हमें क्या करना

दुनिया की तस्वीरों से

छोड़ो यार हमें क्या करना

आड़ी-तिरछी लकीरों से।

हम आए हैं हम जाएँगे

बारिश की इन बूंदों से

लहरें बनकर मिल जाएँगे

सागर की तकदीरों से।

जीवन के छोटे से सफर में

रस्ते हैं कुछ मंज़िल से

कुछ खुशियाँ हैं थोड़े ग़म हैं

झिलमिल करते हीरों से।

ज़िंदगी

कतरनें गिन-गिन कर ज़िंदा होती ज़िंदगी

कतरनें चुन-चुन कर इकट्ठा होती ज़िंदगी

धुएँ के गुबार-सी उठती यह ज़िंदगी

बूंदों की बौछार-सी गिरती यह ज़िंदगी

कौए के पंख-सी चमकती यह ज़िंदगी

होने के दंभ-सी दमकती यह ज़िंदगी

मिट्टी के ढेले-सी भुरभुरी यह ज़िंदगी

आँखों के कंकड़-सी किरकिरी यह ज़िंदगी

रफ्ता-रफ़्ता ऐसे ही चलती यह ज़िंदगी

हफ़्ता-हफ़्ता ऐसे ही ढलती यह ज़िंदगी

मौत का पैग़ाम नहीं जीने की सांसत देती ज़िंदगी

चुपचाप रहकर चुपचाप कुछ कहती यह ज़िंदगी।

यह एक बहुत पुराना-सा साल

(एक महीने के भीतर अपने माँ और पापा दोनों की बरसी मनाते अकेली संतान उज्जू के नाम)

एक साल बीत गया

ख़ामोशियों, तनहाइयों और समझौतों से भरी

इस एक साल की जिंदगी बड़ी डरावनी रही।

जाने कितने सन्नाटे आए और यहीं के होकर रह गए

जाने कितनी मजबूरियों ने इस दिल पर कितने कहर किए

अटकती, भटकती साँसों के बीच ज़िंदा

एक मरा-सा दिल

जाने कितनी जिंदगियाँ जीता

अपने-आप को सहारा देता

मुस्कुराहट देने की अधूरी कोशिश करता

साथ चलते इस तानाशाह, बेरुखे, भंयकर से समय को

अनचीन्हा छोड़ता

सदमों की राहों पर भागता छिपता-फिरता

कभी रोता, कभी चीखता, कभी घबराता, डरता

कभी गुमसुम, चुपचाप बैठता, थककर भागता

ये पराया-सा बेवकूफ दिल

अपने-आप की गिरफ्त से छूटता-छटपटाता

इस साल तक कई सालों को जीता रहा

या शायद जीने का अर्थ मिटाता हुआ

अपने-आप से रीत गया,

यह एक बहुत पुराना-सा साल

बहुत धीरे-धीरे करके

बहुत कुछ साथ लेकर, सब कुछ मिटाकर, कुछ-कुछ ज़िंदा छोड़कर

बीत गया।

आज और मैं

​(दुनियावी success के बाद)

आज

मैं देखती हूँ

खुद को सीढ़ियों पर चढ़ते।

आज

मैं देखती हूँ

सबसे ऊँचों के बीच

खुद को खड़े होते।

आज

मैं देखती हूँ

कई हाथों को मेरी मुट्ठी में

बंद होते।

आज

मैं देखती हूँ

कइयों की पीठ को

उनके चेहरे में बदलते।

आज

मैं देखती हूँ

आसमान को ज़मीन पर उतरते।

आज

मैं देखती हूँ

कई आवाज़ों को

मेरे नाम के आसपास गूँजते।

आज

मैं देखती हूँ

एक नई मुस्कान को

खुद से लिपटते।

आज

मैं देखती हूँ

अंधेरे में

जुगनुओं को

मेरे लिए चमकते।

आज

मैं देखती हूँ

मेरे एक इशारे पर

लोगों को रंग बदलते।

आज

मैं देखती हूँ

मेरे देखते ही

दरवाज़ों को खुलते।

आज

मैं देखती हूँ

पूरी दुनिया को मेरे लिए,

आज

मैं देखती हूँ

खुद को आईने में।

पोस्ट

 

मैं एक डाकिया हूँ

हर घर में डाक पहुँचाता हूँ,

मैं चौकीदार हूँ

रात को एक बजे पहरा बजाता हूँ,

मैं मास्टर हूँ

हर रोज़ स्कूल में पढ़ाने पहुँच जाता हूँ,

मैं सेक्शन ऑफीसर हूँ

टेबल पर कागज़ों में माथा खपाता हूँ,

मैं ड्राईवर हूँ,

एक जगह से दूसरी जगह गाड़ी ले जाता हूँ।

मैं आई.ए.एस. ऑफीसर हूँ, प्रोफ़ेसर हूँ,

मैं दुकानदार हूँ, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हूँ,

मैं नेता हूँ, अभिनेता हूँ,

घुड़सवार हूँ, हवलदार हूँ,

पर मैं 'मैं' नहीं

एक पोस्ट हूँ

जो ज़िंदा तो है पर जीता नहीं।

मिलेंगे क्या.. फिर?

जब बहुत दिन हो गए मुझे

खुशी महसूस किये हुए

तब मैंने चाहा कि

मैं अपनी उन पुरानी खुशियों में हिलमिल जाऊँ, घुलमिल जाऊँ,

मैं उन्हें ढूँढने निकली

और मुझे उन्हें ढूँढने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा

वे तो बस मुझसे कुछ ही कदम की दूरी पर थीं।

मैंने जब उन्हें देखा

मैंने सोचा मैंने सब कुछ पा लिया

बल्कि सबकुछ से भी ज़्यादा,

मैंने इतनी खुशियों की तो कल्पना भी नहीं की थी!

उन प्यारी-प्यारी खुशियों के साथ

मेरी सबसे खूबसूरत, सबसे प्यारी,

सबसे शैतान, सबसे मीठी, सबसे चुलबुली,

सबसे शोख़, सबसे ज़िद्दी सबसे भोली मुस्कुराहट भी थी।

मैं उन सबके साथ हँसी, खेली, भागी, दौड़ी

मैंने उन्हें छूना चाहा

किसी ने मुझे मना नहीं किया

किसी ने मुझे बताया नहीं कि

मेरा स्पर्श उन्हें मुझसे बहुत दूर ले जाएगा

मेरे छूने से उन्हें मुझसे दूर जाना पड़ेगा

ज़्यादा दूर नहीं

बस, मुझसे कुछ ही कदम की दूरी पर,

पहले की तरह।

लेकिन इस बार उन्हें ढूँढने में मुझे काफ़ी वक़्त लगेगा

पता नहीं कितना।

क्या वे मुझे फिर मिल जाएँगी,

उस मुस्कुराहट के साथ?

...शायद.... नहीं.. 

राजनीतिक दल

राजनीतिक दल क्या हैं?

एक ही दीवार पर लगी कई पेंटिंग्स जैसे हैं,

जिनमें

एक ही रंग से बने अलग-अलग चित्र हैं,

एक ही लकड़ी से बने अलग-अलग फ्रेम हैं

जो

दीवार पर लगे तो अलग-अलग हैं

पर डायरेक्शन सभी के सेम हैं।

संतुष्टि

(वृद्धाश्रम में रह रहीं 47 साल की सुलोचना के लिए)

मुझे खुशी नहीं चाहिए

मैं इसी जीवन से संतुष्ट हूँ

जहाँ कोई आता-जाता नहीं।

जहाँ एक लंबी परछाई पसरी है अकेलेपन की।

न किसी से कोई निराशा

न किसी की कोई अपेक्षा

एक अजीब तरह की आज़ादी

जीने की नहीं, जीते जाने की आज़ादी,

अतीत की बैसाखी पर चलते जाने की आज़ादी,

आवाज़ों में सन्नाटे खोजकर

उसमें घुसकर, उसे ओढ़कर मुस्कुराता जीवन

पसंद है मुझे

जहाँ कोई बंदिश, कोई भविष्य नहीं,

खुद पर लदे दूसरों के कोई सपने नहीं।

सिर्फ़ संतुष्टि

अपने-आप से,

किसी और के लिए कोई बेचैनी नहीं।

मैंने सुना

(जब सीमा ने अपने हिंसक पति को मार डाला)

मैंने सुना

वे मना कर रहे थे

अपनों को

मुझसे मिलने के लिए।

मैंने देखा

उन्होंने टेढ़ी भवों और तिरछी नज़रों से

देखा मुझे।

मैंने देखा उन्हें

मेरे कदमों के निशानों को

जबरन मिटाते हुए

और हाँफ़ते हुए।

मैंने सुना

उन्हें

मेरा नाम लेकर

कानाफूसी करते हुए।

मैंने देखा

वे घुटनों के बल बैठकर

मेरी परछाइयों से बच रहे थे।

मैंने सुना

उन्हें मेरी आहटों को

मेरे घर के भीतर दफ़्न करने की साजिश रचते हुए।

मैंने देखा

उन्हें मेरी निगाहों से डरते हुए।

मैंने सुना उन्हें

यह कहते

कि

इस लड़की से दूर रहो
दूर रहो और बचो,

बचो और दूर रहो।

मैंने देखा उन्हें बचते हुए,

मैंने सुना उन्हें दूर होते हुए।

लड़ाई: हार की, हारने की, हारते जाने की

लड़ रहे हैं खुदा और भगवान

लड़ रहे हैं जीसस और नानक महान।

जारी है लड़ाई

हारने की लड़ाई।

लड़ाई, ईश्वर की ईश्वर से

लड़ाई, अपने-अपने बंदों के रूप में खुद की खुद से।

एक ऐसी लड़ाई,

जिसमें बंदों के लड़ने पर ईश्वर हारता है

और ईश्वर के हारने पर बंदे लड़ते हैं।

लड़ाई, खुद को सही साबित करने की

दूसरे को ग़लत ठहराने की,

एक-दूसरे से जीतने की,

एक-दूसरे से हारते जाने की।

लड़ाई, जिसमें कोई जीतता नहीं,

लड़ाई, जिसमें हर किसी को पता है

कि, वो हर वक्त खुद को ज़िंदा रखते हुए

किसी न किसी को मारता है,

लड़ाई, जिसमें हर कोई जानता है

कि, किसी न किसी को मारकर

खुद को ज़िंदा रखना मुश्किल है,

मुश्किल है चलना-फिरना

देखना मुश्किल है,

बोलना, सुनना, चुप रहना मुश्किल है,

लेकिन फिर भी, हार की ये मुश्किल लड़ाई जारी है।

तलाश की तलाश 

मैं तलाश में हूँ,

जाने किस जगह की तलाश में हूँ,

मैं तलाश में हूँ।

एक चीज़ हुआ करती थी

आँखों में रहा करती थी

इस दिल में बसा करती थी,

पैरों से चढ़ाई करके

पलकों से लड़ाई करके

जबरन वो रहा करती थी

वो चीज़ हुआ करती थी,

मैं खोज में हूँ उस पल की

मैं खोज में हूँ उस कल की,

उस जगह की उस डगर की,

तलाश में हूँ, मैं तलाश में हूँ।

लोगों की दुआओं में थी

अपनों की वफ़ाओं में थी

हम सब की सदाओं में थी व

ह चीज़ फ़िज़ाओं में थी,

जाने वो कहाँ बैठी है

गुमसुम-सी कहाँ ऐंठी है

मैं खोज में हूँ उस दिन की

मैं खोज में हूँ पलछिन की

उस रस्ते की, मंज़िल की

उस मंज़िल की, रस्ते की

उस रस्ते उस मंज़िल की

तलाश में हूँ मैं तलाश में हूँ।
 

पॉलिटिकल पार्टियाँ

टेबल-कुर्सी पर टेबल लैंप की रौशनी में बैठा मेरा भाई

पंचशीट की सीधी लकीरों पर कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें खींच रहा है।

ये लकीरें कभी सीधी, कभी टेढ़ी

कभी तिरछी तो कभी धनुषाकार थीं।

कभी एक-दूसरे को काटतीं

तो कभी आपस में साथ-साथ चलतीं,

कभी सीधी होकर भी टेढ़ी होने का आभास देतीं

तो कभी टेढ़ी होकर बिल्कुल सीधी लगतीं।

ऐसी बारीक रेखाएँ

जो थीं तो एक ही कागज़ पर उकेरी गईं

और एक ही पेंसिल से खींची गईं

शुरु भी हुई थीं एक जगह से

और ख़त्म भी होती थीं एक ही जगह जाकर,

लेकिन इतनी उलझी-बिखरी थीं

कि अगर ध्यान से न देखी जाएँ

तो बिल्कुल अलग-अलग लक्ष्य की ओर घूमी दिखें।

दिमाग पर बहुत ज़ोर डालने पर भी जब मेरी कुछ समझ में नहीं आया

तो मैंने भाई से इन लकीरों का अर्थ पूछा,

उसने रेखाएँ खींचते-खींचते मुस्कुराकर कहा-

"अर्थ तो कुछ भी नहीं, बस समझ लो, कि ये पॉलिटिकल पार्टियाँ हैं।"

खोई हुई राहों पर उजाले बुनने हैं

जागते आसमानों के सितारे चुनने हैं

पसरी हुई ज़मीन के जाने कितने कोनों पर

हमको इस ज़माने के किनारे बुनने हैं

सो गई हैं आँखें जिनकी बुझते हुए दीयों पर

हमको उन निगाहों के सहारे ढूँढने हैं 

होती थी जिन मुट्ठी में किस्मत इस दुनिया की

हमको उन अँगुलियों के इशारे चुनने हैं।

वक़्त की बाँह पकड़नी है

तुम्हारा फिर एक दिन होगा

क्यों रोता है ये मन

कह दो उससे कि पलकों को

ऊपर कर ले, करे कोई जतन।

कहो खुद से सीखे जलना

कि जो आग आज उसे जलाएगी

जलते जलते और जलते वो

कल खुद एक राख बन जाएगी।

वो दिल सीने में धड़केगा

दुनिया जिसको सुन पाएगी

फिर गाओगे तुम वो नग़मा

जिसे हर ज़बान दुहराएगी।

कल खुशबू फिर वो फैलेगी

हर साँसों पर छा जाएगी

जिन राहों पर चलते हो तुम

खुद मंज़िल उस पर आएगी।

कह दो कदमों को तेज़ चलें

कि वक़्त की बाँह पकड़नी है

हर साया फिर पीछे होगा

हर रूह फिर साथ निभाएगी।

एक शब्द, जिसे ब्रह्म से बचाकर है रखना

एक शब्द, जिसे हक़ीकत से छुपाकर है रखना

एक शब्द, जो बन जाए रस्ता मेरा

एक शब्द, उसे सबसे हटाकर है रखना।

एक शब्द, जिसपर चलकर है जाना

एक शब्द, जिससे होकर है आना

एक शब्द, जिसे पाकर ना पाना

एक शब्द, जिसे अपना है माना।

एक शब्द, जो बन जाए दुनिया

एक शब्द, जो भर दे सब कमियाँ

एक शब्द, उसे यहाँ है बुलाना

एक शब्द, उसे यहाँ है टिकाना।

भूल जाते हैं वो

हमारे रास्तों पे आ

हमें ही दोषी ठहराते हैं वो

भूल जाने को कई बातें

कई बातें याद दिलाते हैं वो।

हर लम्हा, हर ज़िंदगी

हम जिन्हें देते रहे

हर याद को एक बात में यूँ

भूल जाते हैं वो

 

बेवफ़ाई की है हमने

जाने कितनी देर में

वक़्त का मन्ज़र भी अब तो

यूँ ही छोड़ आते हैं वो।

हम हैं तो क्या ग़म है

हम हैं तो क्या ग़म है

कि मुट्ठी में जहाँ है

और तारों पे कदम है

हम हैं तो क्या ग़म है।

बढ़ते जाएँ बस आगे

पीछे ना देखें मुड़के

सबसे आगे खड़े हम

हर कोई अपने पीछे

सारी दुनिया में हमदम

हर कोई जाने समझे

चल दें जो हम तो चल दें

हवा भी आँखें मींचे।

जन्नत है अपना दिल ये

कुदरत अपनी निगाहें

हाथों में हाथ पकड़कर

बाहों में डालें बाहें

बादल के पार जो देखें

मिल जाएँ अपनी राहें

जितने भी रंग हैं सारे

हमको वे छूना चाहें।

आपका, पता नहीं

भीड़ में साँस लेती ज़िंदगी

जब कुछ कहती है मुझसे, आपसे, सबसे

क्या हम सुन पाते हैं उनकी साँसों के सन्नाटों की आवाज़?

पता नहीं आपका पर मैं तो सुन नहीं पाती,

लाख कोशिशें करती हूँ

अपनी साँसों में डूबकर भीड़ की साँसें सुनती हूँ

सुनती हूँ, पर सुन नहीं पाती।

अगर सुनाई पड़ता है कुछ

तो शोर, कोलाहल, आवाजें

पर साँसें नहीं सुन पाती मैं।

पहले, बहुत पहले एकाध बार सुना था मैंने

पर तब इसे समझ नहीं पाई थी

आज जबकि जानती हूँ कि अगर सुनूँ तो समझ जाऊँगी

तो मैं सुन नहीं पाती

लाख कोशिशें कर लूँ

पर उन तक पहुँचने के रास्ते बुन नहीं पाती

मैं।

आपका,

पता नहीं।

बीस रातों के बाद

सुबह का पत्ता खड़का है

लंबी दुपहरों के बाद

आज शाम का परदा सरका है।

कई दिनों के पीलेपन के बाद

आसमाँ ने नीला रंग छुआ है

गहराई की कई नीचाइयों के बाद

धरती का मन आवारा हुआ है।

बंजर हवा में अमराई फूली है

अनछुई महक से ये फ़िज़ाँ धुली है

पूरा आलम भर गया है बसंत से

बिखर गयी है धुन हरेक अंत पे।

अहं

जब कोई प्रशंसा करता है मेरी,

मेरी किसी चीज़ की बड़ाई करता है

तो जवाब में कुछ नहीं कहती मैं।

सिर्फ़ हल्के से मुस्कुरा देती हूँ,

और तब सामने वाला न जाने क्यों बहुत छोटा हो जाता है

और मैं बहुत बड़ी हो जाती हूँ

ऐसा वो भी महसूस करता हो शायद।

इतनी बड़ी कि वहाँ मुझे कोई नहीं दिखता

कोई नहीं मिलता, बस एक अकेलेपन के।

और तब मैं ऊब जाती हूँ।

लेकिन वह ऊब अच्छी लगती है मुझे,
क्योंकि वह मेरी है, अपनी है, ख़ास है

क्योंकि वह मुझसे सहानुभूति नहीं रखती।

शायद कभी-कभी वह भी ऊब जाती हो मुझसे,

या शायद चिढ़ जाती हो।

लेकिन मुझे वह चिढ़ पसंद है

क्योंकि उसमें मेरा एक अलग अस्तित्व है,

उस दया और सहानुभूति की ठंढी चादर से ढके

स्पर्श से कहीं ज़्यादा सुकून तो देती है वह!

तब लगता है कि चिढ़ना और ऊबना कहीं ज़्यादा अच्छा है

आँखों में पानी लेकर हँसने से

और यह सोचकर मैं फिर मुस्कुराती हूँ

और तब मैं औरों से अलग हो जाती हूँ,

सामने वाले से बड़ी हो जाती हूँ,

और सामने वाला बहुत छोटा हो जाता है।

इसे वह भी महसूस करता है शायद,

और मैं,

सुकून की साँस लेती हूँ।

काली ज़िंदगी

 

बहुत भारी है ज़िंदगी यहाँ

सभी खुद में गुम हैं,

जबरन एक ऐसा कंबल ओढ़े

जो सभी को एक-दूसरे की पहचान से भरमाता है।

बहुत काली है ज़िंदगी यहाँ

अंधेरे में घिरी भँवरों में उलझी

सभी को खुद से लपेटे,

या फिर, सभी ने खुद को उससे लपेट लिया है।

पता नहीं क्यों

यहाँ सभी ख़फ़ा हैं एक-दूसरे से

और असंतुष्ट हैं अपने-आप से।

आत्मा इनकी सिर्फ़ 'आत्म' रह गयी है शायद,

या फिर, 'आत्म' की अनुभूति भी नहीं रह गई अब।

यहाँ एक-दूसरे की खाल से उन्हें चिढ़ है

दूसरों की चमकती खाल पसंद नहीं

क्योंकि इसमें उनकी अपनी खाल फीकी पड़ जाती है

और दूसरों की गंदी खाल भी पसंद नहीं

क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं एक दिन

वह उनकी खुद की खाल न बन जाए।

आसमान

 

कई चमकते तारों को खुद में समेटे हुए

वह बड़ा सा आसमान अकेला है,

बिल्कुल अकेला है।

चाँद की सफेद-पीली रोशनी लिए

सूरज की दहकती गरमी लिए

उस बच्चे के समान है

जो अनाथाश्रम में हज़ारों के बीच भी बिल्कुल अकेला है।

पंछियों की उड़ान अपनी सफेदी में लिए

बादलों की बिखराहट को समेटते हुए

बिजली की चमक को टूटते देखकर

बसंती हवा को खुद के विस्तार पर फैलते देखकर

अपने में सिमटा हुआ बिल्कुल अकेला है

क्षितिज के इस पार से उस पार तक

किसने कहा आसमाँ बहुत बड़ा है?

हाँ, दूसरों के लिए उसमें विस्तार ही विस्तार है

पर अपने लिए वह बहुत सीमित है

यहाँ से वहाँ तक।

सागर को अपना रंग देता आसमान

खुद में रंगहीन है

आशाओं को प्रतिपल एक नई ऊँचाई देते आसमान के पास

अपने लिए थोड़ी-सी भी जगह नहीं।

अपने-आप में टूटता, बिखरता वह आसमान

जो सभी के लिए अपना और एकमात्र है

उस आसमान के लिए

अपना और एकमात्र कोई नहीं।

अभी कुछ दूर, ज़रा कुछ दूर

चलो अनथक, बढ़ो कुछ दूर।

मिटाते धरती के काँटे

सभी के दुक्खों को बाँटे

सुबह के दीयों तक चल लो

हटाते अंधियारी रातें,

न रुकना, सो न जाना तुम

अभी कुछ दूर ज़रा कुछ दूर।

ये देखो आग के पौधे

कहे हैं, पूरे कर वादे

कि चिंगारी तुम्हारी है

जले हैं तेरे ही नाते,

कि कदमों को जगाता चल

अभी कुछ दूर ज़रा कुछ दूर।

आदमी

क्या हो गया है आदमी को ?

क्या वह सिर्फ़ आ-द-मी रह गया है?

क्या उसका अपना कोई अर्थ नहीं रह गया है?

क्या उसकी त्वचा सिर्फ़ वह परत भर रह गई है

जिसके अंदर कुछ माँस और कुछ हड्डियों का जोड़ है?

क्या उसकी शिरायें सिर्फ कुछ नलियाँ भर रह गयी हैं

जिनमें लहू नाम का एक तरल पदार्थ बहा करता है?

क्या उसका मस्तिष्क वह एक पन्ना भर रह गया है

जिसमें वह हिंसाओं-प्रतिहिंसाओं का बही-खाता लिखा करता है?

क्या उसका हृदय सिर्फ एक इंजन मात्र बन गया है

जो धक् धक् कर शरीर के सभी हिस्सों को बस खींच रहा है?

अगर हाँ,

तो हम आज से इसे आदमी कहना छोड़ दें

क्योंकि इसकी आदमीयत मर चुकी है,

क्योंकि इसकी इंसानियत मर चुकी है,

क्योंकि इसकी मानवीयता मर चुकी है;

क्योंकि वह आदमी अब आदमी न रहकर

सिर्फ़ आ-द-मी रह गया है।

काश...

काश, आपने मुझे ये शरीर न दिया होता

सिर्फ मेरी आत्मा होती, ये मन होता

तब न मैं किसी की बोझिल बेटी होती

और न किसी का आवारा बेटा

दुख में जबरन होठों को फैलाकर मुस्कुराना न पड़ता

और न ही खुशी में होठों को बंद रखना पड़ता।

हवाओं के साथ जहाँ चाहे उड़ती

बारिश के साथ चाहे जब तक भीगती,

तब पंछियों को छूने के लिये पिंजरे की ज़रूरत नहीं पड़ती

और न ही नदी पार करने के लिए नाव की।

तब मैं जब चाहे हँसती, जब चाहे रोती

जिससे चाहे बातें करती, जिससे चाहे रूठती

झूठी इज़्ज़त के लिए किसी से दूर रहने की ज़रूरत न पड़ती

और न इन रिश्तों को ढोने के लिए किसी के पास रहने की।

जीवित रहते हुए मरने की चिंता न होती

न मरने के बाद के जीवन की।

फ़िज़ाओं में छिपती इधर से उधर मैं

हवाओं में बहती यहाँ से वहाँ तक

... काश!

कभी-कभी वह कोना सर उठाता है

कभी-कभी ऐसा लगता है

कि दोपहर की यह धूप कभी खत्म नहीं होगी

हम बैठे-बैठे इसे बस देखते रहेंगे

और एक दिन इस निर्जीव सफेदी की हमें आदत हो जाएगी।

ऐसा लगता है जैसे सपनों की एक बड़ी-सी पोटली खोखली ही रह जाएगी।

कि जैसे रास्ता यूँ ही चलता जाएगा

और कोई मंज़िल नहीं रह जाएगी

न सर पर अपना आसमाँ होगा

न पाँवों के नीचे अपनी ज़मीन होगी

खुली साँसों में जी सकें हम

ऐसी कोई हवा भी क़रीब नहीं होगी।

एक भरा-पूरा ज़माना होगा

पर अपनी दुनिया कहीं और ही दूर चली जाएगी।

आँखें भी होंगी, साँसें भी होंगी

पर वे अपनी न रह जाएँगी

कभी-कभी ऐसा लगता है कि सब कुछ होगा

पर हमारे पास 'हम' न होंगे।

पर तभी मन का एक कोना धीरे-से सर उठाता है

आँखें खोलकर हमें देखता है और कहता है

"वो दिन आएगा जब यह निर्जीव सफेदी चकाचौंध भरी रौशनी बनकर उभरेगी,

सपनों की एक बड़ी-सी फुलवारी होगी
जिसकी खुशबू में हर हवा झूमेगी।

कदमों के नीचे वह रास्ता होगा जिसकी हर दूरी हमें मंज़िल तक पहुँचाएगी,

अपनी ज़मीं और अपना आसमाँ होगा

हर किसी का अपना वो ऐसा जहाँ होगा।

अपनी दुनिया होगी, अपने हाथों में होगी

बिल्कुल पास होगी।

हम होंगे, हम होंगे और, वो दिन आएगा"

वह कोना धीरे से सर उठाता है

और अंदर कहीं एक हीरा जगमगा उठता है।

खुशियाँ आधी-अधूरी

और ग़म पूरे मिले

हीरों को ढूँढा हमने

जुगनुओं के चितेरे मिले।

किनारे पर खड़े थे

किनारे पर खड़े हैं

सुबह न आई अब तक

सिर्फ़ रात के अंधेरे मिले।

उमस भरी आँधी

जो आई एक बार

कर्ज़ बनकर रह गए

बुझे हुए ये सारे दीये।

मंज़िलें बहुत हैं पर रास्ता नहीं दिखता

ख़्वाहिशें तो बहुत हैं पर माद्दा नहीं दिखता।

चलने को तो हम चल दिए अलग

और अब वो छूटा हुआ कारवाँ नहीं दिखता।

जाने ये कदम हमें ले जाएँगे कहाँ

रौशनी नहीं, किसी का उजाला नहीं दिखता।

चले आए हम बहुत दूर तक राही पर

इस दूरी का कोई निशां नहीं दिखता।

उस ओर बहुत दूर तक निगाहें जाती हैं

नज़रों का जहाँ कोई आशियाँ नहीं दिखता।

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