
हमारी दुनिया बहुत से समाजों और संस्कृतियों से बनी/में बंटी है, और हर समाज में, हर संस्कृति में, हर जगह लोगों ने खुद को लड़कों और लड़कियों में बांट लिया है।
लड़कों और लड़कियों के बीच गहरी बायोलॉजिकल जड़ों वाले, प्रकृति के इस नैचुरल अंतर में समाज ने अपनी जाति और नस्लीय (अमेरिका में रंग आधारित) व्यवस्था की तरह कई सारे फ़िक्शन जोड़ दिए और ऐसी कहानियाँ रचीं जिन्हें देखकर प्रकृति भी हैरान होगी।
उस पर से हमने इन फ़िक्शन के आधार पर लड़कियों और लड़कों के ह्यूमन राइट्स में भी अंतर कर डाला और सिर्फ अंतर ही नहीं किया, एक जेंडर (लड़कों) को प्राथमिकता (प्रायोरिटी) दे दी और आसानी से एक (मूर्खतापूर्वक) लाइन दे दी – ‘यही नैचुरल है’ - बिना किसी जैविक स्पष्टीकरण (biological explanation) और बायोलॉजिकल लॉजिक के।
आगे बढ़ने से पहले दो बिन्दुओं को पढ़ लें:
1. जाति, नस्ल, जेंडर के ये फ़िक्शन हर समाज और देश में, समय, सिचुएशन और संस्कृति के हिसाब से बदलते रहे हैं। कारण सबसे बड़ा यही है कि ये मानव समाज के दिमाग और उसकी कल्पना के उपज हैं।
2. पुरुष और महिला के बीच बेसिक अंतर यह है कि प्रेग्नेंट होना और बच्चों को जन्म देना महिलाओं का काम है, क्योंकि पुरुषों के पास गर्भ नहीं होते। आप इसे नहीं बदल सकते। कारण सबसे बड़ा यही है कि यह नैचुरल फ़ैक्ट है, मानव-कल्पना (ह्यूमन इमैजिनेशन/ फ़िक्शन) नहीं।
अब आगे बढ़ते हैं।
नेचर के हिसाब से लड़का और लड़की का अंतर बहुत साफ है। लड़का वह - जिसमें एक एक्स क्रोमोज़ोम और एक वाई क्रोमोज़ोम होता है। लड़की वह - जिसमें दो एक्स क्रोमोज़ोम होते हैं। अगर थोड़े और डिटेल में जाएँ तो एक लड़का वह - जिसके पास एक्स वाई क्रोमोज़ोम, अंडकोष और बहुत सारे टेस्टोस्टेरोन हैं। एक लड़की वह – जो दो एक्स क्रोमोज़ोम, एक गर्भाशय और प्रचुर मात्रा में एस्ट्रोजेन के साथ जन्मी है।
लेकिन समाज के हिसाब से लड़का और लड़की सिर्फ बायोलॉजिकल नहीं, बल्कि सोशल कैटेगरी में आते हैं जिसके तहत समाज, आपकी नैचुरल पर्सनैलिटी को, समाज द्वारा तय किए गए ‘लड़का-बॉक्स’ और ‘लड़की-बॉक्स’ में फिट करने की लगातार कोशिश में रहता है, अधिकांशतः वह ऐसा करने में सफल भी होता है। हालाँकि इसमें फिट होना कोई अचीवमेंट नहीं, बल्कि एक बेहद थकाऊ और बोझिल काम है, जिसका नेचर से कोई लेना-देना नहीं।
अपने-अपने फ़िक्शनल इंसानी सिस्टम में समाज ने लड़कों और लड़कियों के लिए ऐसे खाँचे बनाए हैं जिसमें फ़िट होना ही आपको ‘रियल मैन’ और ‘रियल वूमन’ बनाता है।

यह ब्लॉग चूँकि ‘लड़की होने के मतलब’ पर आधारित है तो यहाँ मैं लड़कियों की बात करूँगी।
अगर आप ध्यान दें तो आप पाएँगे कि लड़कियों ने अक्सर यह लाइन सुनी होती है (अगर खुद के लिए नहीं, तो किसी और के लिए) :
· लड़की हो, लड़की की तरह रहो
· बिहेव लाइक अ लेडी
अब ये लड़की होना या लड़की की तरह रहने का क्या मतलब है।
मतलब बहुत सारे हैं –
आपका ख़ास तरह का पहनावा, लाइफ स्टाइल, करियर, पसंद-नापसंद, बोल-चाल (कई बार हँसना भी), सपने, आकांक्षाएँ, आदतें, हरकतें, रुचियाँ, बहादुरी (की सीमा) आदि-आदि इसमें शामिल हैं।
माने, घूमना पसंद है, अच्छी बात है पर घुमक्कड़ी नहीं चलेगी। घड़ी की सुइयों के दायरे में रहना और ‘सेफ’ जगहों पर लोगों के साथ जाना - ये आपके लिए है। क्योंकि ‘लड़की की तो नीयत में ही आवारगी नहीं होती’। लीजिए, आ गया ‘बॉक्स’।
कुछ बेसिक-बेसिक प्वाइन्टर यहाँ लिख रही हूँ जो लड़कियों को लड़की ‘बनाता’ है। अगर आप इनसे मैच नहीं करतीं तो सावधान, आप तुरंत लड़की की कैटेगरी से निकलकर, लड़कों की श्रेणी में पहुँच सकती हैं। आप पर तोहमत लगाई जा सकती है कि आप लड़कों की तरह बनने-रहने की कोशिश कर रही हैं, कि आपको लड़की होने पर गर्व नहीं है, कि आपको तो लड़का होना चाहिए, कि आप दाढ़ी-मूँछ क्यों नहीं रख लेतीं? वगैरह-वगैरह।
कुछ (काफी कम) बेसिक प्वाइन्टर्स:
किचन का शौक होना लड़की होने की पहली शर्त है।
लंबे बालों का बेइंतहाँ शौक लड़की होने की दूसरी शर्त है। ध्यान रखें, छोटे बालों का शौक जैसी कोई चीज़ नहीं होती – आप सिंपली लड़का होने की कोशिश कर रही हैं।
शॉपिंग में रुचि आपको सम्पूर्ण लड़की का दर्जा देती है।
मेकअप और गहनों में रुचि है? मतलब आपको लड़की होने पर गर्व है!
बच्चे पसंद होने चाहिए (बच्चे को देखते ही उसे गोद लेने की ललक होना या यह कहना - ओह दैट बेबी इज़ सो क्यूट!)
चेक शर्ट, हैट, बड़ी घड़ी, रग्ड क्लोदिंग? ये तो लड़कों का पहनावा है।
टैटू पसंद हैं? ओह! कोई बात नहीं। मोरपंख या तितली बनवा लो।
वाइल्डलाइफ वाली लाइफ़? जंगल-जंगल घूमोगी? किसी रैंच वाले से शादी करके शौक पूरा कर लेना।
मोटरसाइकिल? अ बिग नो। स्कूटी ले लो।
बिना डरे एडवेंचर स्पोर्ट्स? इसको तो लड़का होना चाहिए था!
अकेला रहना लड़कियों के लिए पॉसिबल नहीं। आप अकेलेपन की शिकार हो सकती हैं, पर आपको अकेला रहना/होना पसंद तो नहीं हो सकता। दिस इज़ सो नॉट लाइक गर्ल्स। गर्ल्स लाइक टु बि केयर्ड, ऑल द टाइम।
धूल-मिट्टी में खेलना? यह तो लड़कों की आदत है।
बचपन तक ठीक है, पर बड़े होकर भी गली-मोहल्ले में खेलकूद? आप सिर्फ शो-ऑफ कर रही हैं, आप अटेन्शन सीकर हैं।
आपको अपने शरीर पर शर्मिंदगी है (ध्यान दें – शर्म नहीं, शर्मिंदगी) और अगर आप लगातार इसे छुपाने की कोशिश में लगी हैं तो आप एक बेहद उम्दा किस्म की लड़की हैं।
याद रहे, आप चीजों को कम्फ़र्ट के तौर पर नहीं ले सकतीं। आपकी हर चीज़ ‘आपपर’ अच्छी लगनी चाहिए। ‘आपको’ अच्छी लगे ना लगे।
बहुत सारे Dos and Don’ts हैं ‘लड़की होने के मतलब’ में।

अब आते हैं, कि इसमें क्या गलत है।
बस 4 लाइन्स।
लड़की को नेचर ने ‘लड़की बनाकर’ भेजा है।
लड़की को नेचर ने उसका शरीर दिया है, उसके शौक दिए हैं, उसकी पसंद-नापसंद दिए हैं, उसकी अपनी पर्सनैलिटी दी है।
अगर लड़की की वह पर्सनैलिटी समाज के फिलहाल के क्राइटेरिया पर फिट नहीं बैठती और आप नेचर के कंधे पर बंदूक रखकर (यानि यह कहकर कि लड़की की तरह रहो), उसे लड़की ‘बनाने’ के काम में जुट जाते हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि आप नेचर (प्रकृति) के खिलाफ़ जा रहे हैं।
लड़की को ‘लड़की-बनाने’ की ज़रूरत नहीं, वह पैदायशी लड़की है, नैचुरली लड़की ही है।
क्योंकि अगर छोटे बाल होना लड़की के नेचर जैसा नहीं है तो:
1. उसे बाल छोटे करने की इच्छा ही नहीं होती।
2. अगर होती भी, तो उसके बाल छोटे करना संभव नहीं होता। या तो बाल कटते ही नहीं, या अगर कटते तो, या तो वो तुरंत बदलकर बायोलॉजिकली लड़का हो जाती या छोटे बालों में लिटरली ज़िंदा नहीं रह पाती
क्योंकि अननैचुरल की existence पॉसिबल नहीं। अप्राकृतिक का होना संभव नहीं है।
थोड़ा और डिटेल में बताऊँ तो, समाज की लाख कोशिश के बाद भी कई बार लड़कियाँ अपनी कैटेगरी से अलग हटकर होती हैं। और अगर उन्हें ‘लड़की बनाया’ ना जाए तो अधिकांश मामले में वे इन क्राइटेरिया से बाहर ही होंगी। मतलब, ऐसा होना संभव है। और अगर ऐसा होना संभव है तो इसका मतलब कि यह नैचुरल है, प्राकृतिक है।
सोचिए, गहन विचार वाली बात है। अगर किचन का शौक होना लड़की होने की पहली-दूसरी या कोई सी भी शर्त होती तो फिर वह शौक साँस लेने जैसा उनके बायोलॉजिकल सिस्टम में होता।
तो ज्ञान की बात यह है कि अपने हिसाब से लड़के और लड़कियों को बॉक्स में फिट करने वाले थोड़ा समझदार बनें। और मानें कि,
प्रकृति आपसे अधिक समझदार है, पुरानी है, सिस्टेमेटिक है।
प्रकृति पर भरोसा रखें।
जेंडर को ‘परिभाषित’ करने वाले अधिकांश कानून, कैटेगरी, अधिकार, ड्यूटी आदि बायोलॉजिकल/नैचुरल ट्रुथ (सार्वभौमिक सच) से अधिक हमारे अपने सेल्फ़िश फ़िक्शन हैं, कल्पना हैं जो अलग-अलग देशकाल, टाइमलाइन के हिसाब से बदलते रहते हैं।
अगर आप अभी भी लड़की होने का मतलब नियमों में ढूंढ रहे हैं तो मान लीजिए कि आप मूर्ख हैं। फिर मूर्खता करने के लिए आप आज़ाद हैं, हाँ इतनी समझदारी ज़रूर रखिए कि समझदार लोग आपकी मूर्खता को मूर्खता ही समझेंगे।
PS: अननैचुरल तो पेड़-पौधों का अपनी जड़ छोड़कर दौड़ना होगा शायद।
Spoken nothing but truth 👏🏻
🫰🏻🤝
Very well written
शुक्रिया !! लड़कियों की जुबान लिखने के लिए उनकी तरफ से जो वो जिंदगी भर बोलने की सोचतीं रह जाती हैं लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं कर पातीं।
कमाल की लेखनी है आपको। हार्दिक शुभकामनाएं।